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________________ कुन्दकुन्दवावकाचार न शुक्रसोमयोः कार्य स्नानं रोगविमुक्तये । पौष्याश्लेषाध्रुवस्वातिपुनर्वसुमघासु च ॥१२ रिक्ता तिथिः कुजार्को च क्षोणेन्दुर्लग्नमस्थिरम् । द्विषष्ठकादशाः करा नैरुज्यस्नानशुद्धिदा ॥१३ रेतोवान्ते चिताभूमिस्पर्श दुःस्वप्नदर्शने । क्षौरकमणि च स्नायाद गालितैः शुद्धवारिभिः ॥१४ चतुर्थी नवमी षष्ठी चतुर्दश्यष्टमी तथा । अमावस्या च दैवज्ञैः क्षुरकर्मणि नेष्यते ॥१५ दिवाकोत्तिः प्रयोगेऽत्र वाराः प्रोक्ता मनीषिभिः । सौम्येज्य-शुक्रसोमानां क्षेमारोग्यसुखप्रदा ॥१६ क्षौरं प्रोक्तं विपश्चिद्धिमुंगे पुष्ये वरेषु च । ज्येष्ठाऽ.श्वनीकर-द्वन्द्व रेवतीषु च शोभनम् ॥१७ क्षौरे राजाज्ञया जाते नक्षत्रे नावलोक्यते । कैश्चित्तीर्थे च शोके च क्षौरमुक्तं सुखाथिभिः ॥१८ रात्रौ सन्ध्यासु विद्योते क्षौरं नोक्तं तथोत्सवे । भूषाभ्यङ्गासनस्थानपर्वयात्रारणेष्वपि ॥१९ कल्पयेदेकशः पक्षे रोमश्मश्रुकचान्नखान् । न चात्मदशनाग्रेण स्वपाणिभ्यां न चोत्तमः ॥२० आत्मवित्तानुसारेण कलौचित्ये न सर्वदा । कार्यो वा नातिशृङ्गारो वयसश्चानुसारतः ॥२१ वारा नवीनवस्त्रस्य परिधाने मताः शुभाः । सौम्याक-शुक्र-गुरुवो रक्ते वस्त्रे कुजोऽपि च ॥२२ जानना चाहिए, इस विषयमें कोई संशय नहीं है ॥११॥ रोगसे मुक्ति पानेके बाद शुक्रवार और सोमवारको स्नान नहीं करना चाहिए । तथा पुष्य, आश्लेषा, ध्रुव संज्ञकमें (तीनों उत्तरा, रोहिणी और रविवार) स्वाति, पुनर्वसु और मघा इन नक्षत्रोंमें भी रोग-मुक्तिके बाद स्नान नहीं करना चाहिए ॥१२॥ रिक्तातिथिमें अर्थात् चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशीको, मंगलवार और रविवारको अमावस्याको और अस्थिर लग्नमें भी रोग-मुक्तिके बाद स्नान नहीं करना चाहिए । दूसरे, छठे, ग्यारहवें भावमें गये हुए क्रूरग्रहमें रोग-विमुक्त हुए पुरुषको स्नान शुभ कारक है ॥१३॥ वीर्य स्खलन होने पर, वमन करने पर, चिताभूमि (स्मशान) के स्पर्श करने पर, दुःस्वप्न के देखने पर, और क्षौर कर्म करने (बाल बनवाने) पर वस्त्रसे गाले गये (छने) शुद्ध जलसे स्नान करना चाहिए ॥१४॥ क्षौर कर्ममें चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा अमावस्या इन तिथियोंको दैवज्ञ ( ज्योतिषी ) शुभ नहीं कहते हैं ॥१५॥ दिवाकोत्ति प्रयोग (दिनके विचार) में मनीषी ज्ञानी जनोंने सौम्य (बुध) ईज्य (गुरु) शुक्र और सोम ये वार क्षेम, आरोग्य और सुखप्रद कहे हैं ॥१६॥ इसी प्रकार मृगशिर, पुष्य, चर नक्षत्र (स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, सोमवार) ज्येष्ठा, अश्विनी, करद्वन्द्व, (हस्त और चित्रा) तथा रेवतो इन नक्षत्रोंमें विद्वानों ने क्षौर कर्म उत्तम कहा है ॥१७॥ क्षौर कर्म करानेके लिए राजा की आज्ञा होने पर नक्षत्रादिका विचार नहीं देखा जाता है। कितने ही सुखके इच्छुक जनोंने तीर्थ स्थानमें जाने पर और गुरुजनों के मरणरूप शोक होने पर क्षौर कर्म करना कहा है अर्थात् इनमें नक्षत्रादिका विचार नहीं किया जाता है । रात्रिमें, सन्ध्याकालोंमें और प्रकाश-रहित स्थानमें भी क्षौर कर्म करना नहीं कहा है। तथा उत्सवके समय, वेष-भूषाके समय, तैल-मर्दनके समय, अपने आसन पर बैठे हुए, पर्वके दिन, यात्रामें और रण-संग्राममें भी क्षौर कर्मका निषेध किया गया है ॥१९॥ पक्षमें एक बार शिर और दाढ़ीके केशोंको तथा नखोंको बनवाना चाहिए। अपने दांतोंके अग्रभागसे और अपने दोनों हाथोंसे नख-केशादिका काटना उत्तम नहीं है ॥२०॥ . __ अपने धनके अनुसार वेष-भूषादिरूप कला उचित हैं, किन्तु सर्वदा वैसा ही वेष बनाये रखना उचित नहीं है। अधिक श्रृंगार नहीं करना चाहिए। किन्तु अवस्थाके अनुसार ही करना चाहिए ॥२१॥ नवीन वस्त्र धारण करनेके लिए सौम्य, (बुध) रवि, शुक्र और गुरुवार शुभ माने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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