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________________ । १..) यहाँ यह ज्ञातव्य है कि श्वे० परम्पराके शास्त्रोंमें जिस प्रकार प्रत्येक प्रतिमाके धारण करनेके समयका उल्लेख है, उस प्रकारसे दि० परम्पराके शास्त्रोंमें नियत समयका कोई उल्लेख नहीं है । यह साधक श्रावककी शक्ति और अवस्थापर निर्भर है कि वह पूर्व-पूर्व प्रतिमामें अपनेको सर्व प्रकारसे निष्णात देखकर आगे-आगेको प्रतिमाओंको स्वीकार करता हुआ अन्तमें या तो मुनि बन जावे, अथवा समाधिमरणको अंगीकार करे। श्वे० परम्पराके अनुसार पहली प्रतिमाके धारण करनेका उत्कृष्ट काल एक मास, दूसरीका दो मास, तोसरीका तीन मास, चौथीका चार मास, पाँचवींका पाँच मास, छठीका छह मास, सातवोंका सात मास, आठवींका आठ मास, नवमीका नौ मास, दशवींका दश मास और ग्यारहवीं. का ग्यारह मास है। इसका अर्थ है कि (१+२+३+४+५+६+७+ ८+९+ १० + ११ = ६६ ) छयासठ मास अर्थात् साढ़े पाँच वर्षके पश्चात् उसे मुनि बन जाना चाहिए, अथवा संन्यास धारण कर लेना चाहिए। समीक्षा दिगम्बर परम्परामें सोमदेवको छोड़कर सभी श्रावकाचार-कर्ताओंने सचित्त त्यागको पाँचवीं और आरम्भ त्यागको आठवी प्रतिमा माना है । पर सोमदेवके तर्क-प्रधान एवं बहुश्रुतज्ञ चित्तको यह बात नहीं अँची कि कोई व्यक्ति सचित्त भोजन और स्त्री-सेवनका त्यागी होनेके पश्चात् भी कृषि आदि पापारम्भवाली क्रियाओंको कर सकता है। अतः उन्होंने आरम्भ-त्यागके स्थानपर सचित्त त्याग और सचित्त त्यागके स्थानपर आरम्भ-त्याग प्रतिमको कहा। उपरि-दर्शित श्वेताम्बरीय दशाश्रुतस्कन्ध और हरिभद्र-रचित विंशति विशतिकाकी प्रतिमाविशतिकामें सचित्त त्यागको सातवीं और ब्रह्मचर्य-प्रतिमाको छट्ठी माना है। संभवतः सोमदेव उक्त दोनों ग्रन्थोंसे परिचित रहे हैं । फिर भी अपनी तार्किक बुद्धिसे श्वेताम्बरीय प्रतिमाक्रमको अपनाते हुए भी आरम्भ त्याग करनेवाली प्रतिमा को दिवा ब्रह्मचर्य और नवधा ब्रह्मचर्यसे पहिले ही स्थान देना उचित समझा है । यहाँपर सप्रमाण श्वेताम्बरीय मान्यताको देनेका अभिप्राय यही है कि विद्वज्जन प्रतिमाओंके विषयमें विभिन्न मतोंसे परिचित हो सकें। श्वेताम्बरीय परम्परामें पाँचवीं एकरात्रिक प्रतिमा है। इस प्रतिमाधारीको पर्वके दिनोंमें स्नानका त्यागी और रात्रिमें भोजन करनेका त्यागी होना आवश्यक है। दिगम्बर परम्परामें दशवीं अनुमति त्याग प्रतिमा है। पर इस नामवाली कोई प्रतिमा श्वेताम्बर परम्परामें नहीं है। वहां उद्दिष्टाहार त्यागको दशवी प्रतिमा माना गया है । तथा ग्यारहवीं प्रतिमाको श्रमणभूत प्रतिमा कहा है। वह सचेल साधु जैसा वेष धारण करता है, आसेविऊण एयाभावेण निओगओ जई होइ । जं उवरि सम्वविरई भावेणं देसविरई ॥ २० ॥ सूचना-टिप्पणीमें दी गई सभी गाथाएँ हरिभद्रसूरि-रचित प्रतिभा-विशिका की है। और उक्त सभी प्राकृत गवभाग दशाम तस्कन्धके उबासगदशा प्रकरणके हैं।-सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001554
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages598
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size13 MB
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