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________________ हरिवंशपुराणगत-श्रावकाचार शुभः पुण्यस्य सामान्यादानवः प्रतिपादितः । तद्विशेषप्रतीत्यर्थमिदं तु प्रतिपद्यते ॥१ हिंसानृतवचश्चौर्या ब्रह्मचर्यपरिग्रहात् । विरतिर्देशतोऽणु स्यात्सर्वतस्तु महद्वतम् ॥२ महाणुवतयुक्तानां स्थिरीकरणहेतवः । व्रतानामिह पञ्चानां प्रत्येकं पञ्च भावनाः ॥३ स्ववाग्गुप्तिमनोगुप्ती स्वकाले वीक्ष्य भोजनम् । द्वे चेर्यादाननिक्षेपसमिती प्रावतस्य ताः ॥४ स्वक्रोधलोभभीरुत्वहास्यहानोद्धभाषणाः । द्वितीयस्य व्रतस्यैता भाषिताः पञ्च भावनाः ॥५ शून्यान्यमोचितागारवासान्यानुपरोधिताः । भक्ष्यशुद्धचविसंवादौ तृतीयस्य व्रतस्य ताः ॥६ स्त्रीरागकथाश्रुत्या रम्याङ्गक्षाङ्गसंस्कृतैः । रसपूर्वरतस्मृत्योस्त्यागस्तुर्यव्रतस्य ताः ॥७ इष्टानिष्टेन्द्रियार्थेषु रागद्वेषविमुक्तयः । यथास्वं पञ्च विज्ञयाः पञ्चमवतभावनाः ॥८ हिंसादिष्विह चामुष्मिनपायावद्यदर्शनम् । व्रतस्थैर्यार्थमेवात्र भावनीयं मनीषिभिः ॥९ दुःखमेवेति चाभेवादसद्वेद्यादिहेतवः । नित्यं हिंसादयो दोषा भावनीया मनीषिभिः ।।१० मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यं च यथाक्रमम् । सत्त्वे गणाधिके क्लिष्टे ह्यविनेये च भाष्यते ॥११ पुण्यकर्मका जो शुभास्रव होता है उसका सामान्यरूपसे वर्णन ऊपर किया जा चुका है । अब उसकी विशेष प्रतोतिके लिए यह प्रतिपादन किया जा रहा है ।। १ ॥ हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और अपरिग्रह इन पाँच पापोंसे विरक्त होना सो व्रत है । वह व्रत अणुव्रत और महाव्रतके भेदसे दो प्रकारका है। उक्त पापोंसे एक देश विरत होना अणुव्रत है और सर्व देश विरत होना महावत है ॥२॥ महाव्रत और अणुव्रतसे युक्त मनुष्योंको अपने व्रतमें स्थिर रखनेके लिए पांच व्रतों में प्रत्येकको पांच-पांच भावनाएं कही जाती हैं ॥ ३ ॥ सम्यक् वचनगुप्ति, सम्यग्मनोगुप्ति, भोजनके समय देखकर भोजन करना ( आलोकितपान भोजन ), ईर्यासमिति और आदान-निक्षेपण समिति ये पांच अहिंसाव्रतकी भावनाएं हैं ।। ४ ।। अपने क्रोध, लोभ, भय, और हास्यका त्याग करना तथा प्रशस्त वचन बोलना ( अनुवीचिभाषण ) ये पाँच सत्यव्रतको भावनाएं हैं ।। ५ ॥ शून्यागारावास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भक्ष्यशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये पाँच अचौर्य ब्रतकी भावनाएं हैं ॥ ६॥ स्त्री-रागकथा श्रवणत्याग अर्थात् स्त्रियोंमें राग बढ़ाने वाली कथाओंके सुननेका त्याग करना, उनके मनोहर अङ्गोंके देखनेका त्याग करना, शरीरकी सजावटका त्याग करना, गरिष्ठरसका त्याग करना एवं पूर्वकालमें भोगे हुए रतिके स्मरणका त्याग करना ये पांच ब्रह्मचर्य व्रतकी भावनाएं हैं ॥ ७॥ पञ्च इन्द्रियोंके इष्ट-अनिष्ट विषयोंमें यथायोग्य राग-द्वेषका त्याग करना ये पाँच अपरिग्रहवतकी भावनाएँ हैं ॥ ८ ॥ बुद्धिमान् मनुष्योंको व्रतोंकी स्थिरताके लिए यह चितवन भो करना चाहिए कि हिंसादि पाप करनेसे इस लोक तथा परलोकमें नाना प्रकारका कष्ट और पापबन्ध होता है ।॥ ९॥ अथवा नीतिके जानकार पुरुषोंको निरन्तर ऐसी भावना करनी चाहिए कि ये हिंसादि दोष दुःख रूप ही हैं। यद्यपि ये दुःखके कारण हैं दुःख रूप नहीं परन्तु कारण और कार्य में अभेद विवक्षासे ऐसा चिन्तवन करना चाहिए ।। १० । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ ये चार भावनाएँ क्रमसे प्राणी-मात्र, गुणाधिक, दुःखी और अविनेय जीवोंमें करना चाहिए। भावार्थ-किसी जीवको दुःख न हो ऐसा विचार करना मैत्री भावना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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