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________________ ११८ श्रावकाचार-संग्रह उक्तं च रतिरूपा तु या चेष्टा दम्पत्योः सानुरागयोः । शृङ्गारः स द्विधा प्रोक्तः संयोगो विप्रलम्भकः ||४७ स त्याज्यो परदम्पत्योः सम्बन्धी बन्धकारणम् । प्रीतिः शृङ्गारशास्त्रादौ नादेया ब्रह्मचारिभिः । ६३ चक्षुर्गण्डाधरग्रीवास्तनोदरनितम्बकान् । पश्येत्तन्मनोहराङ्ग निरीक्षणमत्यादरात् ॥६४ न कर्तव्यं तदङ्गानां भाषणं वा निरीक्षणम् । कायेन मनसा वाचा ब्रह्माणुव्रतधारिणा ॥६५ रतं मोहोदयात्पूर्वं सार्द्धमन्याङ्गनादिभिः । तत्स्मरणमतीचारं पूर्वरतानुस्मरणम् ||६६ ब्रह्मचर्यव्रतस्यास्य दोषोऽयं सर्वतो महान् । त्याज्यो ब्रह्मपयोजांशुमालिना ब्रह्मचारिणा ॥६७ वृषमन्तं यथा माषाः पयश्चेष्टरसः स्मृतः । वीर्यवृद्धिकरं चान्यत्त्याज्यमित्यादि ब्रह्मणे ॥६८ स्नेहाभ्यङ्गादिस्नानानि माल्यं त्रक् चन्दनानि च । कुर्यादत्यर्थमात्रं चेद् ब्रह्मातीचारदोषकृत् ॥६९ स्त्रियोंकी राग-रूप कथाका सुनना कहलाता है । यहाँ पर रागरूप कथाके कहनेसे शृंगारके कहनेका अभिप्राय है। श्रृंगाररसके सुननेमें प्रेम करना स्त्रीरागकथा श्रवण है ||६२|| कहा भी है परस्पर एक दूसरेको प्रेम करनेवाले स्त्री-पुरुषोंकी जो काम-क्रीड़ारूप चेष्टा है उसको शृंगार कहते हैं । वह श्रृंगार दो प्रकारका बतलाया है - एक संयोगात्मक और दूसरा वियोगात्मक । स्त्री-पुरुषोंके मिलने से जो शृंगार रस प्रगट होता है वह संयोगात्मक श्रृंगाररस है और स्त्री-पुरुषोंके वियोग होनेपर जो परस्पर मिलनेकी उत्कट इच्छा होती है अथवा जो वियोगजन्य दुःख होता है उसको कहना या सुनना वियोगात्मक रस है ||४७|| व्रती श्रावकोंको अन्य स्त्री पुरुषों से उत्पन्न होनेवाले दोनों प्रकारके शृङ्गाररसके सुननेका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि ऐसी कुचेष्टाओंके सुननेसे अशुभ कर्मोंका तीव्र बन्ध होता है । इसी प्रकार ब्रह्मचर्य व्रतको धारण करनेवाले ब्रह्मचारियोंको शृङ्गाररसको कहनेवाले शास्त्रोंमें भी प्रेम नहीं करना चाहिए || ६३ || स्त्रियोंके नेत्र, कपोल, अधर, ग्रीवा (गर्दन), स्तन, उदर, नितम्ब आदि मनोहर अंगोंको अत्यन्त आदरसे देखना तन्मनोहरांगनिरीक्षण कहलाता है ||६४|| ब्रह्मचर्य अणुव्रतको धारण करनेवाले व्रती गृहस्थोंको मनसे, वचनसे और कायसे स्त्रियोंके मनोहर अंगोंका न तो कभी वर्णन करना चाहिए और न कभी उनको देखना चाहिए। ब्रह्मचर्य - व्रतकी रक्षा करनेके लिए यह दूसरी भावना है || ६५|| मोहनीयकर्मके उदयसे पहले जो अन्य स्त्रियोंके साथ कामक्रीडा की थी उसका स्मरण करना पूर्वरतानुस्मरण कहलाता है । यह पूर्वरतानुस्मरण नामका दोष इस ब्रह्मचर्य व्रतका सबसे बड़ा दोष है । इसलिए इस ब्रह्मचर्यव्रतरूपी कमलको प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्यके समान ब्रह्मचारीको इस पूर्वरतानुस्मरण नामके दोषका त्याग अवश्य कर देना चाहिये । यह तीसरी भावना है ।। ६६-६७।। उड़दकी दाल, दूध तथा अपनेको अच्छे लगने वाले जितने रस हैं वे सब पौष्टिक रस कहलाते हैं, अथवा वीर्यको बढ़ाने वाले जितने भी पदार्थ हैं वे सब पौष्टिक रस कहलाते हैं । अणुव्रती श्रावकोंको अपना ब्रह्मचर्य सुदृढ बनाने लिये ऐसे पौष्टिक रसोंके सेवन करनेका सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । यह ब्रह्मचर्यकी रक्षा करनेके लिए चौथी भावना है || ६८|| तेल लगाकर नहाना, उबटन लगाकर नहाना, फूलोंका शृंगार करना, माला पहिनना, चन्दन लगाना तथा इनके सिवाय शरीरका संस्कार करनेवाले जितने भी पदार्थ हैं उनका अधिकता के साथ सेवन करना स्वशरीरसंस्कार कहलाता है । यह स्वशरीरसंस्कार ब्रह्मचर्यको घात करनेवाला, उसमें अनेक प्रकारके दोष उत्पन्न करनेवाला और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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