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________________ ५८ श्रावकाचार-संग्रह ज्ञानादिसिद्ध्यर्थतनुस्थित्यर्थानाय यः स्वयम् । यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य सोऽतिथिः ॥४२ यत्तारयति जन्माब्धेः स्वाश्रितान्यानपात्रवत् । मुक्त्यर्थगुणसंयोगभेदात्पात्रं विधा मतम् ॥४३ यतिः स्यादुत्तमं पात्रं मध्यमं श्रावकोऽधमम् । सुदृष्टिस्तद्विशिष्टत्वं विशिष्टगुणयोगतः ॥४४ प्रतिग्रहोच्चस्थानान्रिक्षालना नतीविदुः । योगानशुद्धोंश्च विधीन् नवादरविशेषितान् ॥४५ अतिथिसंविभाग व्रतके प्रतिपादन करनेका यहाँ यह प्रयोजन है कि इसको अपने भोजनके पहले अतिथिकी प्रतीक्षा करना ही चाहिए। इससे उसको अतिथिके न मिलनेपर दानक फल में बाधा नहीं आती, किन्तु वह भावनाके बलसे हो दानके फलका अधिकारी हो जाता है। सम् = निर्दोष तथा निर्बाध । वि-भाग--अपने लिए बनाये हुए भोजनके अंशको अतिथिके लिए हिस्सा रखना अतिथिसंविभाग कहलाता है। सुयोग्य अतिथिके लिए सुयोग्य दाता द्वारा योग्य द्रव्यके देनेसे विशेषफलकी प्राप्ति होती है ॥४१॥ जो ज्ञानादिककी सिद्धिके हेतु शरीरको स्थितिके प्रयोजनभूत अन्नके लिए विना बुलाए प्रयत्नपूर्वक अर्थात् संयमकी विराधना नहीं करके दातारके घरको जाता है वह अतिथि कहलाता है। अथवा जिसके पर्व तिथि आदि किसीका भी विचार नहीं होता वह अतिथि कहलाता है। भावार्थ-ज्ञानादिकको सिद्धिके उपायभूत शरीरकी रक्षा के लिए (न कि शरीरकी ममताके लिए) अपने संयमको सम्हालते हुए किसोके बिना बुलाए शास्त्रविहित आहारको आवश्यकताके लिए जो श्रावकके घरको यत्नाचारसहित गमन करता है उसे अतिथि कहते है ? अथवा तिथि और तिथिके उपलक्षणसे पर्वदिवस और उत्सव दिवसका जिसके विचार नहीं होता वह अतिथि कहलाता है ।।४२।। जो जहाजकी तरह अपने आश्रित प्राणियोंको संसार रूपी समुद्रसे पार कर देता है वह पात्र कहलाता है और वह पात्र मोक्षके कारणभूत अथवा मोक्ष ही है प्रयोजन जिनका ऐसे सम्यग्दर्शनादिक गुणोंके सम्बन्धके भेदसे तीन प्रकारका माना गया है। विशेषार्थ-जैसे जहाज अपने आश्रितोंको जलाशयसे पार कर देता है वैसे ही जो दानके कर्ता, प्रेरक और अनुमोदक को संसारसे पार करता है उसे पात्र कहते हैं । वह पात्र मोक्षके लिए आवश्यक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूपो गुणोंके संयोगके भेदसे तीन प्रकारका है। अर्थात् उत्तम, मध्यम और जघन्यके भेदसे पात्रके तीन भेद हैं ।।४३।। मुनि उत्तम, श्रावक मध्यम, असंयत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र कहलाता है, तथा विशेषगुणोंके सम्वन्धसे ही इन उत्तमादि पात्रोंका परस्पर में या दूसरोंसे भेद होता है। विशेषार्थ-मुनि उत्तम पात्र,श्रावक मध्यम पात्र और सम्यग्दष्टि जघन्यपात्र हैं। इन तीनोंमें परस्पर जो विशेषता है वह सम्यग्दर्शनादिकको प्राप्तिविशेषके कारण है। मुनियों में महावत सहित सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। श्रावकों में देशव्रतसहित सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है। तथा सम्यग्दृष्टियोंमें व्रतरहित सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है । इसलिये पात्रोंके उत्तम, मध्यम और जघन्य भेद हो जाते हैं। इनमें परस्पर यही विशेषता है। तथा ये तीनों ही पात्र, अपात्रोंकी अपेक्षा भी विशेषता रखते हैं। अर्थात् अपात्र तारक नहीं होता, किन्तु ये पात्र तारक होते हैं ॥४४॥ प्राचोनाचार्य यथायोग्य विनयके द्वारा विशेषताको प्राप्त हुए प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजा, नमस्कार और मनःशुद्धि, वचनशुद्धि तथा अन्तशुद्धि दानके नौ प्रकारोंको जानते हैं। विशेषार्थ-पात्रके लिए विशेष आदरपूर्वक नवधाभक्तिसे जो आहार दिया जाता है उसे विधिविशेष कहते हैं। प्रतिग्रह, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, पूजा, नमस्कार, मनःशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि तथा अन्नशुद्धि। पात्रको आहार देते समय यह नौ प्रकारकी विधि (नवधाभक्ति) होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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