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________________ सागारधर्मामृत भजेद्देहमनस्तापशमान्तं स्त्रियमन्नवत् । क्षीयन्ते खलु धर्मार्थकायास्तवतिसेवया ॥२९ प्रयतेत समिण्यामुत्पादयितुमात्मजम् । व्युत्पादयितुमाचारे स्ववत्त्रातुमथापथात् ॥३० विना सुपुत्रं कुत्र स्वं न्यस्य भारं निराकुलः । गृही सुशिष्यं गणिवत् प्रोत्सहेत परे पदे ॥३१ दर्शनप्रतिमामित्थमारुह्य विषयेष्वरम् । विरज्यन् सत्वसज्जः सन् व्रती भवितुमर्हति ॥३२ शान्ति पर्यन्त ही सेवन करे क्योंकि अन्नको तरह स्त्रोके भी अधिक सेवनसे धर्म, अर्थ और शरीर तीनों ही क्षीण हो जाते हैं। भावार्थ-जैसे शरीर और सन्तापकी शान्ति जितनेसे होती है उतना अन्न खाया जाता है, उसी प्रकार श्रावकको शरीर और मनके सन्तापकी शान्ति जितनेसे होती है, उतने ही परिमाणमें स्त्रीसंसर्ग करना चाहिये, आसक्तिसे नहीं। क्योंकि अन्नके समान स्वदारजनित विषयोंके सेवनकी अधिकतासे भी धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थका नाश होता है । अभिप्राय यह है कि श्रावकका स्वदारसेवन भी अनासक्तिपूर्वक और मर्यादित होना चाहिये ॥२९॥ दर्शनिक श्रावक अपनी धर्मपत्नीमें पुत्रको उत्पन्न करनेके लिये प्रयत्न करे। और अपने समान हो पुत्रको कुल और लोक सम्बन्धी व्यवहारमें व्युत्पन्न करनेके लिये तथा कुमार्ग या दुराचारसे बचानेको प्रयत्न करे। भावार्थ-अपनी समिणोंमें पुत्रोत्सत्तिका और पुत्रको कुलाचार तथा लोकव्यवहारमें अपने समान विज्ञ बनानेका तथा दुराचारसे बचानेका प्रयत्न करना चाहिये ॥३०॥ उत्तम शिष्यके बिना धर्माचार्यकी तरह उत्तम पुत्रके बिना दर्शनिक श्रावक अपने भारको कहाँ पर स्थापित करके निराकुल होता हुआ उत्कृष्ट पदमें प्रोत्साहित होवे । भावार्थ-जैसे आचार्यको अपने समान शिष्य भी योग्य बनाना चाहिये और उसके ऊपर संघके शासनका भार सौंपकर मोक्षमार्गमें प्रयत्न करना चाहिये । यदि योग्य शिष्य न हो तो आचार्य धर्म-रक्षाका भार किसे सौंप कर आत्म-कल्याणमें प्रवृत्त हो सकेंगे। उसी प्रकार दर्शनिक श्रावकको भी व्रत आदि प्रतिमाओंके पालनके लिये अपने समान योग्य पुत्रकी उत्पत्तिके लिये प्रयत्न करना चाहिये । नहीं तो वह अपने द्वारा पोषण करने योग्य अपनी गृहस्थीके भारको किसे सौंप कर और निराकुल रूपसे अपने इष्ट मार्गको प्राप्त करेगा? ॥३१।। श्रावक इस प्रकारसे दर्शनप्रतिमाको धारणकर विषयोंमें विशेष या अधिक विरक्त और धैर्य आदि सात्त्विक भावोंसे युक्त होता हुआ व्रत प्रतिमाधारी होनेको योग्य है। भावार्थ-इस प्रकार दर्शनप्रतिमाका भली प्रकार पालन कर पाक्षिककी अपेक्षा अथवा अपनी पूर्व अवस्थाको अपेक्षासे भी विशेष वैराग्य भावनाका धारक श्रावक सत्य तथा धैर्य आदिक गुणोंसे सुसज्जित होकर आगेको व्रतप्रतिमाके पालनके योग्य होता है ॥३२॥ इति तृतीयोऽध्यायः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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