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________________ धर्मोपदेशपीयूषवर्ष-श्रावकाचार ४८५ समत्वं सर्वजीवेषु संयमो द्विविधस्तराम् । आतं-रौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकवतम् ॥१२२ चैत्यालये तथैकान्ते गृहे वा स्वस्थचित्तभाक् । स्थानं पद्मासनं स्थित्वा कुर्यात्सामायिकं सुधीः ॥१२३ चैत्य-पञ्चगुरूणां च भक्त्यादिक्रमयोगतः । महावैराग्यभावेन द्वि-त्रिसन्ध्यं तदाऽचरेत् ॥१२४ एकोऽहं शुद्ध-बुद्धोऽहं कर्मभिर्वेष्टितोऽपि च । संसारे कोऽपि मे नाहं नैव कस्येति चिन्तयेत् ॥१२५ उक्तं च कर्मबन्धकलितोऽप्यबन्धनो राग-रोषमलिनोऽपि निर्मलः । देहवानपि च देहवजितश्चित्रमत्र किल शक्तिरात्मनः ॥२० चिन्ताऽऽरम्भ-मदं द्वेषं काम-क्रोधादिचिन्तनम् । यथाकालं परित्यज्य सुधीः सामायिकं भजेत् ॥१२६ शीतोष्ण-वातबाधां च दंशावेश्चोपसर्गकम् । जिनेन्द्रवचने धीरः सहमानस्तदाश्रयेत् ॥१२७ केशबन्धस्तथा मुष्टि-बन्धः पल्यबन्धनः । वस्त्रादिबन्धनं चेति प्राहुस्तत्समयं बुधाः ॥१२८ उक्तं पञ्चव्रतानां हि पूरणं धर्मकारणम् । नित्यं सामायिकं भव्याः सङ्कयुदुःखवारणम् ॥१२९ पूर्वाऽऽचार्यक्रमेणोच्चैर्ये कुर्वन्ति विचक्षणाः । सामायिक त्रिशुद्धया च भवभ्रमणनाशनम् ॥१३० ते भव्याः श्रीजिनेन्द्राणां महाभक्तिपरायणाः । क्रमात्स्वमेक्षिजं सौख्यं प्राप्नुवन्त्येव निर्मलम् ॥१३१ मनोवाक्काययोगानां त्रिभिर्दुःप्रणिधानकैः । निरादरास्मृती सामायिके पञ्चव्यतिक्रमाः ॥१३२ काल-पर्यन्त सर्व जीवोंपर समता भाव रखना, इन्द्रिय-संयम और प्राणिसंयम यह दोनों प्रकारका संयम पालन तथा आत और रोद्रध्यानका त्याग करना, यह सामायिक व्रत है ॥१२२।। चैत्यालयमें, एकान्त घरमें अथवा अन्य किसी स्थानमें स्वस्थ चित्त होकर, पद्मासन या खड्ङ्गासनसे स्थित होके ज्ञानी श्रावकको सामायिक करना चाहिए ॥१२३।। यह सामायिक चैत्य और पंच परमेष्ठीको भक्ति आदिके क्रमसे महान् वैराग्यभावके साथ श्रावकको प्रातः, सायं इन दोमें, अथवा प्रात:, मध्याह्न और सायंकाल इन तीनों सन्ध्याओंमें करना चाहिए ॥१२४।। सामायिकमें ऐसा चिन्तवन करे कि मैं अकेला हूँ, कर्मोंसे वेष्टित होते हुए भी शुद्ध-बुद्ध हूँ, संसारमें कोई भी मेरा नहीं है और में भी किसीका नहीं हूँ ॥१२५॥ जैसा कि कहा है-कर्म-बन्धसे संयुक्त हो करके भी मैं बन्धन-रहित हूँ, राग-द्वेषसे मलिन होते हुए भी मैं निर्मल हूँ, और देहवान् हो करके भी मैं देह-रहित हूँ। आत्माकी इस शक्तिपरं आश्चर्य है ॥२०॥ सामायिकके काल-पर्यन्त चिन्ता, आरम्भ, मद, द्वेष, काम और क्रोधादिका चिन्तवन छोड़कर ज्ञानी पुरुष सामायिक करे ॥१२६।। सामायिकके समय धीरवीर श्रावक जिनेन्द्रवचनमें दृढ़श्रद्धान रखता हुआ शीत-उष्ण पवनकी बाधाको और दंश-मशकादिके द्वारा होनेवाले उपसर्गको सहते हुए समताभावका आश्रय करे ॥१२७॥ ज्ञानियोंने केशबन्ध, मुष्टिबन्ध, पर्यङ्कासन बन्ध और वस्त्रादिबन्धको सामायिकका समय कहा है ॥१२८॥ यह सामायिक शिक्षाव्रत अहिंसादि पाँचों व्रतोंका परिपूरक, धर्मका कारण और दुःखोंका निवारण करनेवाला कहा गया है। अतः भव्यजन इस सामायिकको नित्य करें ॥१२९।। जो ज्ञानी पुरुष भव-भ्रमणका नाशक इस सामायिकको पूर्वाचार्योके द्वारा बतलाये हुए क्रमसे उच्च त्रियोग-शुद्धि के साथ करते हैं, वे श्रीजिनेन्द्रदेवकी महाभक्तिमें परायण भव्यजीव क्रमसे स्वर्ग और मोक्षमें उत्पन्न होनेवाले निर्मल सुखको प्राप्त होते ही हैं ॥१३०-१३१।। तीनों योगोंका खोटा रखना अर्थात् मनोदुःप्रणिधान, वाक्दुः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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