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________________ आठवाँ परिच्छेद चन्द्रप्रभमहं वन्दे चन्द्राभं चन्द्रलाञ्छनम् । जनानन्दकरं देवं यद्गुणग्रामहेतवे॥१ ख्यातो योऽभूदिहैव प्रोपगृहनगुणे शुभे । जिनेन्द्र भक्तस्तस्याहं कथां वक्ष्ये हि श्रेष्ठिनः ॥२ सौराष्ट्रविषये पाटलिपुत्रे हि स्वपुण्यतः । राजा यशोधरो जातः सुसीमा तस्य वल्लभा ॥३ तयोः पुत्रः सुवीराख्यः सप्तव्यसनपीडितः । जातस्तथाविध त्यैर्वेष्टितोऽतिकुमार्गगः ॥४ पूर्वदेशे हि गौडाख्यविषये श्रेष्ठिनन्दनः । ताम्रलिप्तनगर्यां च जिनदत्तो वसन् धनी ॥५ तस्य सप्ततलप्रासादोपर्यस्ति महाशुभा। प्रतिमा पार्श्वनाथस्य बहुरक्षासमन्विता ॥६ तस्याः छत्रत्रये लग्ना वैडूर्यमणिरेव च । अत्यना सुवीरेण पारंपर्येण संश्रुतः ॥७ पुनर्लोभातिशक्तेन तेन पृष्टाः सुसेवकाः । आनेतुं कोऽपि शक्तोऽपि तां मणि स्वप्रपञ्चतः ॥८ तस्करः सूर्यनामापि जल्पदत्यन्तजितम् । हत्वाहमिन्द्रशेखरमणिमप्यानयाम्यहम् ॥९ तस्मानिर्गत्य संजातः क्षुल्लकः कपटेन सः । कुर्वन् क्षोभं पुरे ग्रामे कायक्लेशेन प्रत्यहम् ॥१० ताम्रलिप्तनगरों स क्रमाच्छोघ्र समागतः । जिनेन्द्रभक्तः संश्रुत्वा पूर्ण तत्रागतः सुधीः ॥११ वदित्वा तं स सम्भाष्य प्रशस्य वचनेन च । गृहमानीय श्रीबिम्बं पार्श्वनाथस्य दर्शितम् ॥१२ जिनकी कान्ति चन्द्रमाके समान है, जिनके चन्द्रमाका ही चिह्न है और जो भव्य जीवोंको सदा आनन्द देनेवाले हैं ऐसे श्री चन्द्रप्रभ भगवान्को मैं उनके गुणोंको प्राप्त करनेके लिये नमस्कार करता हूँ ॥१।। सम्यग्दर्शनके पाँचवें उपगूहन अंगमें जिनेन्द्रभक्त प्रसिद्ध हुआ है इसलिये अब में उस सेठकी कथा कहता हूँ ॥२॥ सौराष्ट्र देशके पाटलीपुत्र नगरमें पुण्य कर्मके उदयसे राजा यशोधर राज्य करता था। उसकी रानोका नाम सुसीमा था। उन दोनोंके एक सुवीर नामका पुत्र हुआ था जो कि पाप कर्मके उदयसे सातों व्यसनोंके सेवन करने में चतुर था। उसने अपने समान ही बहुतसे सेवक रख लिये थे और इस प्रकार वह कुमार्गगामी बन गया था ॥३-४॥ सौराष्ट्र देशकी पूर्व दिशामें गौड नामके देशको ताम्रलिप्त नामको नगरीमें एक जिनेन्द्रभक्त नामका धनी सेठ रहता था ॥५॥ उस सेठका भवन सातमंजिला था और वह सेठ बहुत ही बड़ा ऐश्वर्यशाली था। उसके उस भवन में एक चैत्यालय था जिसमें श्री पार्श्वनाथ भगवान्का प्रतिबिम्ब विराजमान था । सेठने उसकी रक्षाका बहत ही अच्छा प्रबन्ध कर रक्खा था ॥६॥ उस प्रतिमापर तीन छत्र लगे हए थे और उन छत्रोंमें एक अत्यन्त बहुमूल्य वैडूर्यमणि लगा हुआ था। उस वैडूर्यमणिको बात परम्परासे उक्त राजपुत्र सुवीरने भी सुनी ॥७॥ उस मणिकी बात सुनकर उसे लोभने दबाया और लोभके वश होकर उसने अपने सेवकोंसे पूछा कि तुमसे कोई सेवक अपना छल-कपट रचकर क्या उस मणिको ला सकता है ? ॥८॥ उन सेवकोंमें एक सूर्य नामका चोर था। वह गर्जकर बोला कि यह कौनसी बड़ी बात है। मैं इन्द्रके मुकुटमें लगी हुई मणिको भी ला सकता हूँ ॥९॥ यह कहकर वह उस मणिको लेनेके लिये चल दिया। उसने कपट कर अपना क्षुल्लकका रूप बना लिया और नगर गांवोंमें लोगोंको क्षोभ प्रगट करता हुआ और प्रतिदिन चलता हुआ शीघ्र ही ताम्रलिप्त नगरीमें आ पहुंचा। बुद्धिमान जिनेंद्रभक्त क्षुल्लकके आनेकी बात सुनते ही उसके समीप आया। सेठने उसे नमस्कार किया, उसके साथ बातचीत की, उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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