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________________ - २४४ श्रावकाचार-संग्रह रेवती प्रेर्यमाणापि मढलोकैरनेकधा । भणित्वा ब्रह्मनामायं कश्चिद्देवो हि चागतः ॥३८ रेवत्याः ख्यातिमाकर्ण्य तत्परीक्षादिहेतवे । पुनर्दक्षिणदिग्भागे कृष्णरूपं प्रदशितम् ॥३९ गोपाङ्गनादिसंयुक्तं गरुडारूढं चतुर्भुजम् । शङ्खचक्रायुधोपेतं दृष्टिहीनैजनैर्नुतम् ॥४० ततः पश्चिमादिग्भागे रुद्ररूपं व्यधादसौ । अर्द्धचन्द्रजटामारूढं वृषभस्य च ॥४१ गौरीरूपसमासक्तः तदृष्ट्वा भक्तितत्परः । आगतास्तत्र सर्वे च शठा नैव विचक्षणाः ॥४२ अतोऽप्युत्तरदिग्देशे रूपं तीर्थकरस्य च । व्यधाद्विषट्गुणोपेतं प्रातिहार्यादिभूषितम् ॥४३ सिंहासनसमासीनं देवविद्याधरादिभिः । नुतं धर्माकरं दिव्यं सभामध्ये परिस्थितम् ।।४४ श्रावकास्तत्र भक्त्यर्थमागता मुनयो परे । रेवती बहुभिः लोकैः प्रेरितापि न चागता ॥४५ नवैव वासुदेवाश्च रुद्रा एकादश स्मृताः । चतुर्विशतिसत्तीर्थकराः श्रीजिनशासने ॥४६ अतीतास्तेऽप्यहो सर्वे मूढानां भ्रान्तिहेतवे । कश्चिदेव समायातो मायावी ज्ञायते न च ॥४७ अथापरदिने चर्यालायां व्याधिपीडितम् । पतितो मर्छया रूपं विधाय क्षुल्लकस्य सः॥४८ प्रतोलीनिकटे मार्गे रेवत्या धर्मवाञ्च्छया। श्रुत्वा तं द्रुतमागत्य नीतो भक्त्या स्वमालयम् ॥४९ तया पथ्यं कृतं तस्य शुद्धाहारजलादिकम् । सर्वमादाय दुर्गन्धं वमनं तद्व्यधादसौ ॥५० पद्मासन लगाकर बैठ गया। उसे इस प्रकार ब्रह्माके रूप में देखकर राजा तथा भव्यसेन आदि सब मूर्ख उसकी पूजा करनेके लिये पहुंचे ॥३६-३७॥ अनेक अज्ञानी लोगोंने रेवती रानीको भी बहत समझाया, चलनेके लिये बहुत प्रेरणा की परन्तु उसने सबको यही उत्तर दिया कि भाई, ब्रह्मा नामका कोई देव आ गया होगा ॥३८॥ तीसरे दिन नगरके पश्चिमकी ओर जाकर उस क्षुल्लकने रेवतीकी प्रसिद्धि सुनकर उसकी परीक्षा करनेके लिये विष्णुका रूप धारण कर लिया। विद्याबलसे अनेक गोपियां बना लीं, चार भुजाएँ बना लीं, गरुडपर सवार हो गया, शंख चक्र और शस्त्र आदि चिह्न बना लिये और अनेक मिथ्यादृष्टियोंको अपनी सेवामें लगा लिया ॥३९-४०॥ परन्तु रेवती रानी वहाँपर भी नहीं गई। चौथे दिन नगरके दक्षिण ओर जाकर उसने महादेवका रूप बना लिया, माथे पर आधा चन्द्रमा लगा लिया, मस्तकपर जटाजूट रख लिया, वृषभपर (नादिया पर) सवार हो गया और आधे अंगमें पार्वतीको धारण कर लिया। उसे देखकर बहुतसे मूर्ख भक्ति करते हुए चले आए, परन्तु रेवती रानी तथा कितने ही अन्य समझदार लोग वहाँ भी नहीं गये ॥४१-४२।। पाँचवें दिन उत्तर दिशाकी ओर जाकर उसने तीर्थंकरका रूप बनाया । अतिशय, प्रातिहार्य आदि सब गुण बना लिये, सभाके मध्यभागमें सिंहासनपर विराजमान हो गया, अनेक देव विद्याधरोंको नमस्कार करते हुए दिखला दिया और सब तरहसे धर्मको प्रगट करनेवाले तीर्थंकरका रूप बना लिया ॥४३-४४।। अनेक श्रावक अनेक मुनि भक्ति करनेके लिये आये, रानी रेवतीसे भी अनेक लोगोंने प्रेरणा की परन्तु वह वहाँ भी नहीं गई ॥४५।। उस बुद्धिमती रानीने सबसे कह दिया कि वासुदेव नौ होते हैं, महादेव ग्यारह होते हैं और तीर्थंकर चौबीस होते हैं ऐसा जैन शास्त्रोंमें वर्णन किया है और वे सब हो चुके फिर अब वासुदेव, महादेव वा तीर्थंकर कहाँसे आये । यह तो लोगोंको भ्रम जालमें फँसानेके लिये कोई देव अपनी मायासे रूप धारण कर आया है॥४६-४७॥ इसके दूसरे दिन उस क्षुल्लकने अपना रूप क्षुल्लकका ही रक्खा परन्तु उसे अनेक व्याधियोंसे पीडित बनाया और चर्याके समय रेवती रानीके राजमहलकी देहलीके निकट आकर अपनी विद्यासे ही बेहोश-सा होकर गिर गया। रेवती रानी सुनते ही बाहर आई और धर्मकी भावनासे भक्तिपूर्वक उसे उठाकर अपने भवन में ले गई ॥४८-४९।। रानीने उसके लिये पथ्य और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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