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________________ १३२ श्रावकाचार-संग्रह वधकारंभकादेशौ वाणिज्यतिर्यकक्लेशयोः । एभिश्चतुविधैर्योगैर्मतः पापोपदेशकः ॥१० शस्त्रपाशविषालाक्षीनीलीलोहमनःशिलाः । चर्माद्यं नखिपक्ष्याद्या दानं हिंसाप्रदानकम् ॥११ भूमिकुट्टनदावाग्निवृक्षमोटनसिञ्चनम् । स्वार्य विनाऽपि तज्ज्ञेयं प्रमादचरितं बुधैः ॥१२ यत्राऽधीते श्रुते कामोच्चाटनक्लेशमूर्छनैः । अशुभं जायते पुंसामशुभश्रुतिरिष्यते ॥१३ एतत्पञ्चविधस्यास्य विरतिः क्रियतेऽत्र यत् । अनर्थदण्डविरतिस्तविद्वतीयं गुणवतम् ॥१४ तत्र कन्दर्पकौत्कुच्यमौखयं वय॑मुत्तमैः । भोगोपभोगानर्थक्यासमीक्ष्याधिकृती मलम् ॥१५ इयन्तं समयं सेव्यौ मया भोगोपभोगको । इयन्तौ नाधिकाविच्छन्स श्रयेत्तत्प्रमाव्रतम् ॥१६ एकशो भुज्यते यो हि भोगः स परिकथ्यते । मुहर्यो भुज्यते लोके परिभोग. स उच्यते ॥१७ तयोर्यक्रियते मानं तत्तृतीयं गुणवतम् । ज्ञेयं भोगपरिभोगपरिमाणं जिनेरितम् ॥१८ । त्याज्यवस्तुनि तु प्रोक्तो यमस्तु नियमस्तथा। यावज्जीवं यमो ज्ञेयो नियमः कालसीमकृत् ॥१९ भोगे सबहुप्रज्ञाघातके यम एव हि । भोगोपभोगकेऽन्यत्र यमो नियमकोऽथवा ॥२० द्विदलं मिश्रितं त्याज्यमामैर्दध्यादिभिः सदा । यतः तत्र सा जीवा विविधाः संभवन्त्यहो ॥२१ हैं ॥९॥ जीवोंके मारनेका और आरम्भका उपदेश देना तिर्यञ्चोंके व्यापारका और कोई क्लेश जनक व्यापार करनेका उपदेश देना इन चारोंके सम्बन्धसे पापोपदेश नाम अनर्थदंड होता है ॥१०॥ तलवार आदि शस्त्र, जाल, विष, लाक्षा ( लाख ), नील, लोह, मनःशिल (मैनशल ), चर्म आदि वस्तु अथवा नखवाले पक्षी आदि जीव इनके देनेको हिंसादान नाम अनर्थदंड कहते हैं ।।११।। अपने प्रयोजनके बिना पृथ्वीका खोदना, वनमें तथा पर्वतोंमें अग्नि लगाना, वृक्षोंका तोड़ना तथा सिञ्चन करना ये सब प्रमादचर्या नामक अनर्थदण्ड कहे जाते हैं ।।१२।। जिन शास्त्रोंको सुननेसे अथवा पढ़नेसे काम, उच्चाटन, क्लेश तथा मूर्छादि होते हैं और जिनसे जीवोंको पाप बन्ध होता है उन खोटे शास्त्रोंके श्रवण तथा पढ़नेको अशुभश्रुति नामक अनर्थदण्ड कहते हैं। इसीका दुःश्रुति अनर्थदण्ड भी नाम है ॥१३।। इस प्रकार ऊपर कहे हुए पाँच प्रकारके अनर्थदण्डसे जो विरक्त होना है उसे अनर्थदण्डविरति नामक दूसरा गुणव्रत कहते हैं ॥१४॥ कन्दर्प-स्त्रियोंके साथ विषय सेवनकी अभिलाषासे युक्त हास्य वचनोंका बोलना, कौत्कुच्य-शरीरकी खोटी चेष्टाएँ करना, मौखर्य-उन्मत्तपनेसे असम्बद्ध बहुत बोलना, भोगोपभोगानर्थक्य-अपने कार्यसे भी अधिक भोगोपभोग वस्तुओंका संग्रह करना, असमीक्ष्याधिकृति-अपने उपयोगका बिचार न करके किसी कार्यको आवश्यकताकी अपेक्षासे भी अधिक करना ये पाँच अनर्थदण्ड त्यागवतके अतीचार हैं । अनर्थदण्डके छोड़नेवाले भव्य पुरुषोंको छोड़ना चाहिये ॥१५॥ इतने काल-पर्यन्त इतने भोग और उपभोग मेरे सेवनके योग्य हैं इस प्रकारसे नियम करके अधिककी अभिलाषा नहीं करनेवाले पुरुषके भोगोपभोगपरिमाण व्रत होता है ।।१६। इस संसारमें जो पदार्थ एक ही बार भोगने में आता है वह भोग कहलाता है और जो बार-बार भोग किया जाता है उसे परिभोग (उपभोग) कहते हैं ।।१७।। भोग और उपभोगके प्रमाण करनेको जिन भगवान् भोगपरिभोगपरिमाण नामक तीसरा गुणव्रत कहते हैं ऐसा जानना चाहिए ॥१८॥ छोड़नेके योग्य वस्तुओंमें यम तथा नियम होता है । जीवन-पर्यन्त त्यागनेको यम कहते हैं और नियम कालकी मर्यादा लिये होता है ॥१९|| त्रसजीव तथा बुद्धिके नाश करनेवाले जो भोग हैं उनमें तो यम ही होता है और जो भोगोपभोग हैं उनमें यम भी होता है तथा नियम भी होता है ॥२०॥ कच्चे दही दूध तथा छाछके साथ जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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