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________________ महापुराणान्तर्गत-श्रावकधर्म-वर्णन ७१ म्लापयन् स्वाङ्गसौन्दर्य मुनिरुग्रं तपश्चरेत् । वाञ्छन्दिव्यादि सौन्दर्यमनिवार्य परम्परम् ।। १७२ मलीमसागो व्युत्सुष्टस्वक यप्रभवप्रभः । प्रभोः प्रभां मुनिर्ध्यायन् भवेत् क्षिप्रं प्रभास्वरः ॥ १७३ स्वं मणिस्नेहदीपादितेजोऽपास्य जिनं भजन् । तेजोमयमयं योगी स्यात्तेजोवलयोज्ज्वलः ।। १७४ त्यक्त्वास्त्र वस्त्रशस्त्राणि प्राक्तनानि प्रशान्तिभाक् जिनमाराध्य योगीन्द्रो धर्मचक्राधिपो भवेत् ॥ १७९ त्यक्तस्नानादिसंस्कारः संश्रित्य स्नातक जिनम् । मूनि मेरोरवाप्नोति परं जन्माभिषेचनम् ।। १७६ स्वं स्वम्यमैहिकं त्यक्त्वा परमस्वामिनं जिनम् । सेवित्वा सेवनीयत्वमेष्यत्येष जगज्जनैः ॥ १७७ स्वोचितासनभेदानां त्यागात्त्यक्ताम्बरो मुनिः । सैंहं विष्टरमध्यास्य तीर्थप्रख्यापको भवेत् ।। १७८ स्वोषधानाद्यनादृत्य योऽभून्नरुपधिर्भुवि । शयानः स्थण्डिले बाहुमात्रापितशिरस्त: ।। १७९ स महाभ्युदयं प्राप्य जिनो भूत्वाऽऽप्तसत्क्रियः । देवविरचितं दीप्रमास्कन्दत्युपधानकम् ।। १८० त्यक्तशीतातपत्राण सकलात्मपरिच्छदः । त्रिभिश्छत्रः समुद्भासिरत्नैरुद्भासते स्वयम् १८१ विविधव्यजनत्यागादनुष्ठिततपोनिधिः । चामराणां चतुःषष्ठ्या वीज्यते जिनपर्यये ॥ १८२ उज्झितानकसङ्गीतघोषः कृत्वा तपोविधिम् । स्यादुन्दुभिनिर्घोषं घुंष्यम णजयोदयः ।। १८३_ उद्यान विकृतां छाय मपास्य स्वां तपो व्यधात् । यतोऽयमत एवास्य स्यादशोक महाद्रुमः ॥ १८४ स्वं स्वापतेयमुचित त्यक्त्वा निर्ममतामितः । स्वयं निधिभिरभ्येत्य सेव्यते द्वारि दूरतः ॥ १८५ खनीय नहीं मानता हुआ वह साधु जिनेश्वरोंके लक्षणोंका चिन्तवन कर तपश्चरण करे ।। १७१ ॥ अनिवार्य परम्परावले दिव्य सौंदर्य आदिका इच्छुक वह साधु अपने शरीर के सौंदर्यको मलिन करता हुआ उग्र तपश्चरण करे ।।१७२ ।। अपने शरीर से उत्पन्न हुई प्रभाका परित्यागकर मलिन अंगवाला वह साधु जिन प्रभुकी प्रभाका ध्यान करता हुआ शीघ्र ही महाप्रभाका धारक हो जाता हैं ।। १७३ ॥ जो योगी मणि, तैलदीपक आदिके समान अपने तेजको छोडकर तेजोमय जिन भगवान्‌की सेवा करता है, वह भामंडल से समुज्ज्वल होता है ॥१७४॥ जो परम शान्तिको धारक साधु गृहस्थावस्थावाले अस्त्र,शस्त्र और वस्त्रको छोडकर - जिनदेवकी आराधना करता है, वह धर्मचक्रका स्वामी M होता है १७५ । जो मुनि स्नान आदि संस्कार छोड़कर स्नातक जिनदेवका आश्रय लेता हैं, वह सुमेरुके शिखर पर परमजन्माभिषेक से प्राप्त होता है ।। १७६ । जो मुनि अपने इस लोकसम्बन्धी स्वामित्वको छोड़कर परम स्वामी जिनदेव की सेवा करता हैं, वह जगत् के जीवो द्वारा सेवनीय होता हैं १७७ || जो मुनि नाना प्रकारके आसनोंको छोडकर दिगम्बर होता है, वह सिंहासन पर बैठकर तीर्थका प्रस्थापक होता हैं ।। ७८ ।। जो मुनि उपधान ( तकिया) आदिका अनादर करके परिग्रहरहित होता हैं और केवल अपनी भुजापर शिरका किनारा रखकर पृथ्वीके नीचे-ऊँचे प्रदेशपर सोता हैं,वह स्वर्गादिके महान् अभ्युदयोंको पाकर जिन बनकर और जगत्से सत्कार प्राप्तकर देवोंसे रचित दीप्तिमान उपधानको पाता हैं ॥१७ - १८०॥ जो मुनि शीत और आतपसे रक्षा करनेवाले अपने छत्र आदि राजवैभवको छोड़ता है, वह प्रकाशमान रत्नवाले तीन छत्रोंसे स्वयं सुशोभित होता है ।। १८१।। जो नानाप्रकारके वीजनोंके परित्याग - पूर्वक तपोविधिका अनुष्ठान करता हैं, वह जिनपर्यायमें अर्थात् तीर्थंकर बनने पर चौसठ चंव रोंसे वीज्यमान होता है ।। १८२ ।। जो वाद्य, संगीत आदि के शब्दों को सुननेका त्यागकर विधिवत् तपको करता है, वह दुन्दुभियोंके निर्घोष-द्वारा जय-जयकाररूप घोषणाको प्राप्त होता हैं ।। १८३|| जिसने अपने उद्यान आदिके वक्षोंकी छायाको छोड़कर तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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