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________________ २४ श्रावकाचार-संग्रह जो उवएसो दिज्जदि किसि-पसुपालण-वणिज्जपमुहेसु । पुरिसित्थी-संजोए अणत्थदंडो हवे विदिओ ॥ ४४ विहलो जो वावारो पुढवी-तोयाण अग्गि-वाऊणं । तह वि वणप्फदि-छेदो अणत्थदंडो हवे तिदिओ ॥ ४५ मज्जार पहुदि-धरणं आउह-लोहादिविक्कणं जं च । लख्खा-खलादिगहणं अणत्थदंडो हवे तुरियो ।। ४६ जं सवणं सस्थाणं भंडण-वसियरण-कामसत्थाणं । परदोसाणं च तहा अणत्पदंडो हवे चरिमो॥४७ एवं पंचपयारं अणत्थदंडं दुहावह णिच्चं। जो परिहरेदि णाणी गुणव्वदो सो हदे विदिओ।।४८ जाणित्ता संपत्ती भोयण-तंवोल-वत्थमादीणं । जं परिपाणं कीरदि भोउवभोयं वयं तस्स ।। ४९ जो परिहरेइ संतं तस्स वयं थुबदे सुरिदो वि। जो मणलड्डु ब मक्खदि तस्स वयं अप्पसिद्धियरं ॥५० सामाइयस्स करणे खेत्तं काल च आसणं विलओ। मण-बयण-कायसुद्धी णायव्या हुति सत्तेय ॥ १ जत्थ ण कलयलसहो बहुजणसंघट्टणं ण जत्पत्थि । जत्थ ण दसादीया एस पसत्थो हवे देसो ॥५२ पुग्वण्हे मज्झण्हेअवरण्हे तिहिवि णालिया-छक्को। सामइयस्स कालो सविणय णिस्सेस-णिहिट्टो।।५३ बंधित्ता पज्जंक अहवा उड्ढेण उन्मओ ठिच्चा । कालपमाणं किच्चा इंदियवावार-वज्जिदो होउ॥५४ करनेका, पशु-पालनका और वाणिज्य आदि आरम्भ कार्योका जो उपदेश दिया जाता है, तथा पुरुष और स्त्रीके विवाह आदिके रूपमें संयोग करने-करानेका कथन किया जाता हैं, वह दूसरा पापोपदेशनामका अनर्थण्ड है ।। ४४॥ पृथिवी, जल, अग्नि, और वायुका निष्फल व्यापार करना, तथा वनस्पतीका निष्प्रयोजन विच्छेद करना सो प्रमादचर्या नामका तीसरा अअर्थ दण्ड है ॥४५।। बिल्ली-कुत्ता आदि मांस-पक्षी पशुओंका पालना, आयुध और लोहा आदिका बेचना, लाख और खली आदिका संग्रह करना यह हिंसादान नामका चौथा अनर्थ दण्ड है ।।४६।। कुमार्ग-प्रतिपादक शास्त्रोंका सुनना, भंडन, वशीकरण और कामशास्त्रका सुनना, तथा अन्य पुरुषोंके दोषोंका सुनना, यह दुःश्रतिनामका अन्तिम अर्थात् पाँचवा अनर्थ दण्ड है ।। ४७ ।। ऐसे पांच प्रकारके दुःखदायक अनर्थ दण्डोंके जानकर जो ज्ञानी नित्य ही उनका परिहार करता हैं, वह दूसरे अनर्थदण्ड त्याग नामक गुणवतका धारक श्रावक हैं।।४८। अब तीसरे भोगोपभोगपरिमाण गुणवतका स्वरूप कहते हैं-जो पुरुष अपने वित्त और शक्तिके अनुसार भोजन, ताम्बूल आदि भोंगोंवाली वस्त्र-भवन आदि उपभोगोंवाली वस्तुसम्पदाका परिणाम करता है, उसके भोगोपभोगपरिमाणनामक तीसरा गुणव्रत होता है ।।४९। जो पुरुष घरमें विद्यमान भी भोग और उपभोगकी वस्तुका परित्याग करता है, उसके व्रतकी देवेन्द्र भी स्तुति-प्रसंशा करते है। और जो मनके लड्ड् खाता है, उसका व्रत अल्प सिद्धिका करनेबाला होता है ।। ५० ।। अब शिक्षाव्रतका वर्णन करते हुए उसके चार भेदोंमेंसे पहले सामायिक शिक्षाव्रतका स्वरूप कहते है -सामायिक करनेके लिए क्षेत्र, काल, आसन, विलय, मन:शुद्धि और वचनशुद्धिः और कायशुद्धि ये सातों ही बाते जानने के योग्य हैं ॥५१॥ जहां पर कल-कल शब्द न होता हो, जहांपर बहुत जनोंका जमघट या आवागमन न हो, और न जहांपर डांस-मच्छर आदिक हों, ऐसा प्रशस्त स्थान सामायिक करने के योग्य क्षेत्र है ।।५२।। विनय-यक्त गणधरादिने पूर्वाह, मध्याह और अपराह इन तीन कालों छह-छह घडी काल सामायिकका कहा हैं ॥५३।। पर्यंक आसनको बांधकर अथवा सीधा खडा होकर कालका प्रमाण करके, इन्द्रियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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