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________________ रत्नकरण्ड श्रावकाचार भोजन वाहन शयनस्नान पवित्रागराग कुसुमेषु । ताम्बूलवसन भूषणमन्मथसंगमतगीतेषु ॥ ८८ अद्य दिवा रजनी वा पक्षी मासस्तथर्तु • यनं वा । इति कालपरिच्छित्या प्रात्यस्य नं भवेशियमः । । ८९ विषय विषतोऽनुपेक्षानुस्मृतिर तिलौल्यम तितृषानुभयो । भोगोपभोगपरिमाव्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ ९० ११ इति श्रीस्वामीसमन्तभद्राचार्य विरचिते रत्नकरण्डकाऽपरनाम्नि उपासकाध्ययने सम्यग्दर्शनवर्णनं नाम चतुर्थमध्ययनम् ॥ देशावकाशिकं वा सामायिकं प्रोषधोपवासो वा । वैयावृत्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि । ९१ देशावकाशिकं स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य । प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ।। ९२ गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सौम्नां तपोवृद्धाः ॥९३ संवत्सर मृतुरयनं मासचतुर्मासपक्षमृक्षं च । देशावकाशिकस्य प्राहुः कालावधि प्राज्ञाः ॥९४ सीमान्तानां परत: स्थूलेतरपपंचपापसंत्यागात् । देशावकाशिकेन च महाव्रतानि प्रसाध्यन्ते ॥ ९५ प्रेषणशब्वानयनं रूपाभिव्यक्ति - पुद्गलक्षेपी | देशावकाशिकस्य व्यपदिश्यन्तेऽत्ययाः पञ्च ।। ९६ भरके लिए ही त्यागरूप यम धारणा करना चाहिये और जो भोग्य या सेव्य हैं ऐसे ) भोजन वाहन, शयन, स्नान, केशर - चन्दन आदिका विलेपन, पुष्प धारण, सूंघन आदिमें तथा ताम्बूल, वस्त्र, आभूषण, काम सेवन, संगीत और गीत-श्रवण आदि भोग्य और सेव्य पदार्थों में आजका दिन, रात, पक्ष, मास ऋतु ( दो मास ), अयन ( छह मास ) और वर्ष आदि कालकी मर्यादाके साथ जो वस्तुका प्रत्याख्यान (त्याग) किया जाता है, वह नियम कहलाता है ।।८८-८९ ।। भोगोपभोगपरिमाणव्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार कहे गये - विषयरूप विषके सेवन से उपेक्षा नही होना, अर्थात् इन्द्रियोंके विषयसेवन में आसक्ति बनी रहना, पूर्व में भोगे हुए विषयोंका वार-वार स्मरण करना, वर्तमान विषयों में अतिलोलुपता रखना, भविष्यकालमें विषय सेवनकी अतितृष्णा या गृद्धि रखना, और नियतकाल में भी भोगोपभोग की वस्तुओंका अधिक मात्रामें अनुभव करना अर्थात् उन्हें अधिक भोगना, इन पाँचों प्रकारके अतिचारोंके सेवन से व्रत मलिन एवं सदोष होता है ।। ९० । इस प्रकार स्वामिसमन्तभद्राचार्य विरचित रत्नकरण्डक नामके उपासकाध्ययन में सम्यग्दर्शनका वर्णन करनेवाला छठा अध्ययन समाप्त हुआ । -:0: अब आचार्य शिक्षाव्रतों का वर्णन करते हैं-जिनेन्द्रदेवने देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषघोपवास और वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत कहे हैं । ।९१ ।। देशावकाशिक शिक्षाव्रतका स्वरूपदिग्व्रतमें ग्रहण किये विशाल देशका कालकी मर्यादासे प्रतिदिन संकोच करना अणुव्रतधारी श्रावकों का देशावका शिकव्रत है ।। ९२ ।। घर, मोहल्ला, ग्राम, खेत, नदी, वन और योजनोंकी मर्यादा करनेको वृद्ध तपस्वी जन देशावका शिकव्रतकी सीमा बतलाते हैं । अर्थात् मैं अमुक समय तक अमुक देश बाहर नहीं जाऊँगा, ऐसा नियम करना देशावका शिकव्रत हैं ।। ९३॥ वर्ष, ऋतु, अयन, मास, चातुर्मास, पक्ष और नक्षत्र के आश्रयसे नियत प्रदश में रहने के नियम करनेको ज्ञानी जन देशावकाशिकब्रतकी कालमर्यादा कहते हैं ।। ९३ ।। सीमाओंके अन्तसे परवर्ती क्षेत्र में स्थूल और पाँचों पापोंके त्याग हो जाने से देशावका शिकव्रतके द्वारा महाव्रतोंका साधन किया जाता है ।। ९५ ।। देशावका शिकव्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार कहे गये हैं- देशव्रती सीमासे बाहर किसीको भेजना, किसीको शब्द सुनाना, किसीको बुलाना, आपना रूप दिखाकर संकेत करना और कंकर - पत्थर फेंककर दूसरेका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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