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________________ २५८ श्रावकाचार-संग्रह रूपेणाऽऽगममभ्यस्य परिगृहीतगृहावासा भवन्ति । अदीक्षाब्रह्मचारिणः वेषमन्तरेणाभ्यस्तागमा गृहधर्मनिरता भवन्ति । गूढब्रह्मचारिणः कुमारश्रमणा: सन्तः स्वीकृतागमाभ्यास। बन्धुभिर्युःसहपरीषहैरात्मना नपतिभिर्वा निरस्तपरमेश्वररूपा गृहवासरता भवन्ति । नैष्ठिकब्रह्मचारिणः समाधिगतशिखालक्षितशिरोलिङ्गा गणधरसूत्रोपलक्षितोरोलिङ्गाः शुक्लरक्तवसनखण्डकोपीनलक्षितकटीलिङ्गाः स्नातका भिक्षावृत्तयो देवताचंनपरा भवन्ति । गृहस्थस्येज्या वार्ता दत्ति: स्वाध्याय: संयमः तप इत्यार्यषट् कर्माणि भवन्ति । तत्रार्हत्पूजेज्या, सा च नित्यमहश्चतुर्मुखं कल्पवृक्षोऽष्टान्हिक ऐन्द्रध्वज इति । तत्र नित्यमहो नित्यं यथाशक्ति जिनगृहेभ्यो निजगृहाद् गन्धपुष्पाक्षतादिनिवेदनं चैत्यचैत्यालयं कृत्वा ग्रामक्षेत्रादौनां शासनदानं मुनिजनपूजनं च भवति । चतुर्मुखं मुकुटबद्धः क्रियमाणपूजा, सैव महामह सर्वतोभद्र इति । कल्पवृक्षोऽथिनः प्रार्थितार्थः सन्तर्प्य चक्रवत्तिभिः क्रियमाणो महः । अष्टान्हिकं प्रतीतम् । ऐन्द्रध्वज इन्द्रादिभिः क्रियमाणः। बलि स्नपनं सन्ध्यात्रयेऽपि जगत्त्रयस्वामिनः पूजाभिषेककरणम् । पुनरप्येषां विकल्पा: अन्येऽपि पूजाविशेषाः सन्तीति। अनुष्ठान करते हैं, वे उपनय-ब्रह्मचारी हैं । जो क्षुल्लकरूप धारण करके आगमोंका अभ्यास कर गृहवासको स्वीकार करते हैं, वे अवलम्बब्रह्मचारी हैं । जो ब्रह्मचारीके वेषको नहीं धारण करके और आगमोंका अभ्यास करके गृहस्थधर्म में निरत होते हैं, वे अदीक्षाब्रह्मचारी है । जो कुमारावस्थामें ही श्रमण (मुनि) वेष स्वीकार कर और समस्त आगमोंका अभ्यास कर, बन्धुजनोंके द्वारा आग्रह किये जाने पर दुःसह परीषहोंके द्वारा पीडित होने पर, अपने आप अथवा राजाओंके द्वारा कहे जानेपर परमेश्वररूप दिगम्बर वेष छोड कर गृहवासमें रत होते हैं, वे गूढब्रह्मचारी हैं । जो समाधिगत शिखा (चोटी शिरोलिंगको धारण करते है, गणधरसूत्ररूप उरोलिंगको धारण करते है, भिक्षावृत्तिसे आहार करते हैं और देवपूजामें सदा तत्पर रहते है ऐसे स्नातक नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं। इज्या (पूजा), वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप ये गृहस्थोंके छह आर्य कर्म करने योग्य होते हैं । अरहंतदेवकी पूजा करना इज्या है। वह पाँच प्रकार की है-नित्यमह, चतुर्मुख. मह, कल्पवृक्षमह, अष्टान्हिकमह और इन्द्रध्वजमह । नित्य अपनी शक्तिके अनुसार अपने घरसे गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर जिनभवनोंके लिए चढाना, जिनदेवकी पूजन करना, प्रतिमा और चैत्यालय बनवा करके खेत आदिका राज्यशासनके नियमानुसार दान देना और मुनिजनोंका पूजन करना नित्यमह हैं। मुकुटबद्ध राजाओंके द्वारा जो पूजा की जाती है, वह चतुर्मुखमह है। उसे ही महामह और सर्वतोभद्रमह भी कहते है । याचकजनोंकी याचनाको द्रव्य द्वारा सन्तुष्ट कर चक्रवर्ती सम्राटोंके द्वारा की जानेवाली पूजा कल्पवृक्षमह कहलाती है। अष्टान्हिक पर्वमें की जानेवाली पूजा अष्टान्हिकमह हैं, जो सुप्रसिद्ध है। इन्द्र आदिके द्वारा की जानेवाली पूजा ऐन्द्रध्वज कहलाती है । इनके अतिरिक्त नैवेद्य समर्पण करना, अभिषेक करना, तीनों सन्ध्याओंमें तीन जगत्के स्वामी जिनेन्द्रदेवकी पूजा करना, अभिषेक करना आदि भी पूजन के ही अन्तर्गत है। उक्त पाँचों प्रकारकी पूजाओंके अन्य भी भेद है जो सब पूजा विशेष ही हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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