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________________ श्रावकाचार-संग्रह भयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवाऽऽगमलिङ्गिनाम् । प्रणाम विनयं चैव न कुर्युःशुधवृष्टयः ढ३० दर्शन ज्ञान-चारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्ग प्रचक्ष्यते ॥३१ विद्या-वृत्तस्य सम्भूति-स्थिति-वृद्धि-फलोदयाः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥३२ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोही मोहिनो मुनेः ॥३३ न सम्यक्त्वसमं किञ्चित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभूताम् ॥३४ सम्यग्दर्शनशद्धा नारक-तिर्य-नपंसक-स्त्रीत्वानि । दुष्कुल-विकृताल्पायुदरिद्रतां च व्रजन्ति नाप्यवतिकाः ॥ ३५ ॥ ओजस्तेजो विद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा:। महाकुला महार्था मानवतिलका भवन्ति दर्शनपूताः ॥ ३६ ।। अन्टगुणपुष्टितुष्टा दृष्टिविशिष्टाः प्रकृष्टशोभाजुष्टाः । अमराप्सरसां परिषदि चिर रमन्ते जिनेन्द्र भक्ता: स्वर्गे।। ३७ ।। नवनिधि-सप्तद्वयरत्नाधीशाः सर्वभूमिपतयश्चक्रम् । वर्तयितुं प्रभवन्ति स्पष्टदृशः क्षत्रमोलिशेखरचरणाः ॥ ३८ ॥ अमरासुरनरपतिभिर्यमधरपतिभिश्च नूतपादाम्भोजाः । दृष्टया सुनिश्चितार्था वृषचक्रधरा भवन्ति लोकशरण्या: ।। ३९ ॥ सकती है, अतः धर्म का ही आचरण करना चाहिए और अहंकार नहीं करना चाहिए ।। २९ ॥ सम्यग्दृष्टि जीवोंको भय, आशा, स्नेह और लोभसे कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरुओंकी वन्दना और विनय नहीं करना चाहिए ॥३०। सम्यग्दर्शनकी ज्ञान और चारित्रकी अपेक्षा प्रधानतासे उपासना की जाती हैं। क्योंकि सम्यग्दर्शनको मोक्षमार्ग में कर्णधार ( खेवटिया ) कहा जाता हैं ॥ ३१ ।। जैसे बीजके अभावमें वृक्षकी उत्पत्ति स्थित, वृद्धि और फल की प्राप्ति असंभव है, उसी प्रकार सम्यक्त्वके अभावमें ज्ञान और चारित्रकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलकी प्राप्ति नहीं होती है ॥ ३२ ॥ सम्यग्दर्शका अवरोध करने वाले मोहसे अर्थात् दर्शन मोहनीय कर्मसे रहित गृहस्थ मोक्षमार्गपर अवस्थित है, किन्तु दर्शनमोहवाला मुनि मोक्षमार्गपर स्थित नहीं हैं । अतएव मोहवान् मुनिसे निमोंही गृहस्थ श्रेष्ठ हैं ।।३३।। सम्यग्दर्शन के समान तीन काल और तीन लोकमें प्राणियोंकी कल्याण-कारण अन्य कोई वस्तु नही हैं और मिथ्यात्वके समान अन्य कोई अकल्याण-कारक नहीं हैं ॥३४॥ अवती भी शुद्ध सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नारकी, तिर्यच, नपुंसक और स्त्री पर्यायको प्राप्त नहीं होते है। तथा खोटे कुलको, विकल अंगको, अल्प आयुको और दरिद्रताको भी प्राप्त नहीं होते हैं ||२५।। सम्यग्दर्शनसे पवित्र जीव यदि मनुष्योंमें उत्पन्न होते हैं, तो ओज ( उत्साह ), तेज (प्रताप), विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि (उन्नति) विजय और वैभवसे संयुक्त, महान् कुलोंमें उत्पन्न होने वाले, महान् पुरुषार्थी, मानव-तिलक या मनुष्यशिरोमणि होते हैं ।। ३६ ॥ सम्यग्दर्शनसे विशिश्ट जिनेन्द्र भक्त पुरुष यदि स्वर्ग में उत्पन्न होते है तो अणिमा-महिमादि आठ ऋद्धि रूप गुणोंकी प्राप्तिसे सदा प्रमुदित और उत्कृष्ट शोभा से संयक्त होकर देवों और अप्सराओंकी सभामें चिरकाल तक आनन्दका उपभोग करते है ।।३७।। निर्मल सम्यग्दृष्टि जीव नौ निधि और चौदह रत्नोंके स्वामी और सर्वभूमिके अधिपति होकर सुदर्शन चक्रको चलाने में समर्थ होते हैं और नमस्कार करते हुए क्षत्रिय राजाओंसे मुकुटोंकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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