SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८९ यशस्तिलकचम्पूगत-उपासकाध्ययन चित्तं न विचारकमक्षजनितमखिलं सविकल्पं स्वांशपतितम् । उदितानि वस्तु नैव स्पृशन्ति शाक्या: कथमात्महितान्युशन्ति ।। ५५२ अद्वैतं तत्त्वं वदति कोऽपि सुधियां धियमातनुते न मोऽपि । यत्पक्षहेतुदृष्टान्तवचनसंस्था: कुतोऽत्र शिवशर्मसदन ।। ५५३ हेतावनेकधर्मप्रवृद्धिराख्याति जिनेश्वरतत्त्वसिद्धिम्।। अन्यत्पुनरखिलमतिव्यतीतमुद्भाति सर्वमुरुनयनिकेत ॥ ५५४ मनजत्वपूर्वनयनायकस्य भवतो भवतोऽपि गणोत्तमस्य । ये द्वेषकलुषधिषणा भवन्ति ते जडजं मौक्तिकमपि रहन्ति ॥ ५५५ ज्ञान हैं वह निर्विकल्पके द्वारा गृहीत वस्तुम ही प्रवृत्ति करता है । तथा वचन वस्तुको नहीं कहते। ऐसी स्थितिमें बौद्ध मतानुयायी कैसे आत्महितका कथन करते है।। ५५ -५५२ ।। भावार्थ-बौद्ध. क्षणिकवादी हैं। उनके मतसे प्रत्येक वस्तु क्षण-क्षणमें नष्ट होती है। किन्तु वस्तुके प्रथम क्षणके नाश हो जानेपर दूसरा क्षण और दूसरे क्षणके नष्ट हो जानेपर तीसरा क्षण उत्पन्न होता रहता है और इस तरहसे क्षण सन्तान चलती रहती है, ऐसा वे मानते है। किन्तु यदि वस्तुके पूर्व क्षण और उत्तर क्षणमें एकत्व नहीं माना जाता हैं तो वह सन्तान बन नहीं सकती और यदि एकत्व माना जाता है तो वस्तु स्थायी सिद्ध हो जाती हैं। उसी एकत्वके कारण बडे होनेपर भी हमें बचपनकी बातोंकी स्मृति रहती है और हममें से प्रत्येक यह अनुभव करता हैं कि जो मै बच्चा था वही मै अब युवा या वृद्ध हूँ। यह तो हुई बौद्ध के क्षणिकवादकी आलोचना । बौद्ध ज्ञानको निर्विकल्पक मानता है और उसे ही वस्तुग्राही कहता है । तथा निर्विकल्पकके बाद जो सविकल्पक ज्ञान होता है उसे अवस्तुग्राही कहता है। निर्विकल्पकका विषय क्षणिक निरश वस्तुहै जो बौद्धकी दृष्टिसे वास्तविक हैं ओर सविकल्पक स्थिर स्थूलाकार वस्तुको ग्रहण करता हैं जोउसकी दृष्टिसे अवास्तविक हैं । चूंकि शब्द भी स्थिर स्थूलाकार वस्तुको ही कहता है, निरंश वस्तुको वह कह ही नहीं सकता। अत: वौद्ध शब्दको भी अवस्तुग्राही मानता है, इसीलिए बौद्धमतमें शब्हको प्रमाण नहीं माना गया। ऐसी स्थिति में जब निर्विकल्पक और सविकल्पक अविचारक हैं और शब्द वस्तुग्राही नहीं है तब बौद्ध मतमें हिताहितका विचार और उपदेश कैसे सम्भव हो सकता है ? (अब अद्वैतवादकी आलोचना करते है-) हे शिव सुखके मन्दिर! जो अद्वैत तत्त्वका कथन करता है वह भी बुद्धिमानोंके विचारोंको प्रभावित नहीं करता ; क्योंकि अद्वैतवादमें पक्ष,हेतु और दृष्टान्त आदि कैसे बन सकते है? अद्वैतकी सिद्धि के लिए हेतुको मान लेनेसे उसके साथमे हेतुके पक्षधर्मत्व सपक्ष-सत्व आदि अनेक धर्म मानने पडते है और उनके माननेसे जिनेश्वरके द्वारा कहे गये द्वैत तत्त्वकी ही सिद्धि होती है-अद्वैतकी नहीं। अतः हे अनेकान्त नयके प्रणेता! तुम्हारे द्वारा कहे गये तत्त्वोंके सिवाय शेष सब बुद्धिसे परे प्रतीत होता है, वह बुद्धिको नहीं लगता ॥५५३५५४ । भावार्थ-अद्वैतवादी केवल एक ब्रह्म तत्त्व ही मानते है किन्तु बिना द्वैतके अद्वैतकी सिद्धि नहीं हो सकती ; क्योंकि अद्वैतकी सिद्धि बिना प्रमाणके तो हो नहीं सकती और प्रमाण माननेसे अनुमान आदि प्रमाण मानने पडेंगे । तथा बिना पक्ष हेतु और दृष्टान्तके अनुमान नहीं होता और इस सबके माननेसे अद्वैत नहीं ठहरता । हे देव! आप गुणोंसे श्रेष्ठ हैं, फिर भी यतः आप अनेकान्त नयके नायक होनेसे पूर्व मनुष्य थे, अतः जिनलोगोंकी मति द्वेषसे कलुषित है वे मोतीको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy