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________________ ११४ श्रावकाचार-संग्रह विद्यावाणिज्यमषीकृषिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम् । पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम्॥१४२ भूखननवृक्षमोट्टनशाड्वलदलनाम्बुसेचनादीनि ।निष्कारणं न कुर्याद्दलफलकुसुमोच्चयानपि च॥१४३ असिधेनु विषहुताशनलाङ्गलकरवालकामकादीनाम् । वितरणमुपकरणानां हिंसायाः परिहरेद्यत्नात् ॥ १४४ रागादिवर्द्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षणादीनि।।१४५ सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सम मायायाः । दूरात्परिहरणीयं शौर्यासत्यास्पदं घुतम् ।। १४६ एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुञ्चत्यनर्थदण्डं यः। तस्यानिशमनवद्यं विजयहिंसावतं लभते ।। १४७ रागद्वेषत्यागानिखिलद्रव्येष साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिक कार्यम् ।। १४८ रजनीदिनयोरन्ते तदवश्यं भावनीयमविचलितम् । इतरत्र पुन: समये न कृतं दोषाय तद्गुणाय कृतम् ।। १४९ सामायिकधितानां समस्तसावद्ययोगपरिहारात् । भवति महाव्रतमेषामुदयेऽपि चरित्रमोहस्य ॥१५० सामायिकसंस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम् । पक्षार्धयोर्द्वयोरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः ।। १५१ मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिनपूर्ववासरस्यार्धे । उपवासं गण्हीयान्ममत्वमपहाय देहादों ।। १५२ विरति नामक तीसरे गुणवतका वर्णन करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि पापद्धि (आखेट-शिकार) जय, पराजय, संग्राम परस्त्रीगमन और चोरी आदिक करने की बात कभी भी नहीं चिन्तवन करना चाहिए, क्योंकि इनका केवल पाप ही फल हैं । अनर्थण्डविरतिके पाँचभेदोंमेंसे यह प्रथम अपध्यानविरति है ॥१४१॥ विद्या, वाणिज्य मषी, कृषि, सेवा और शिल्पसे आजीविका करनेवाले पुरुषोंको उनके करनेवाले पापके उपदेशरूपसे वचन कभी भी नहीं बोलना चाहिए । यह पापोपदेश विरति है।।१४२।। भूमि खोदना,वृक्ष मोडना, दुर्वा-घास रोंदना, जल सींचना, आग जलाना और बुझाना,तथा पत्र, फल, फूल तोडना आदि कार्य निष्प्रयोजन न करे । यह प्रमादचर्याविरति है।।१४३।। छुरी, धेन, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुष-बाण आदि हिंसाके उपकरणोंका दूसरोंको देना प्रयत्नके साथ परित्याग करे। यह हिंसादानविरति हैं ॥१४४।। रागादिकी बढानेवालो तथा अज्ञान-बहुल खोटी कथाओंका कभी भी श्रवण,अर्जन (संग्रह) और शिक्षण (सीखना-सिखाना) आदि न करे। यह दुःश्रुतिविरति हैं।। १४५।। जुआ सर्व अनर्थोमें प्रधान है, शौच (पवित्रता और सन्तोष) का नाशक है, मायाचारका घर हैं, चोरी और असत्यका स्थान है,उसे दूरसें ही परित्याग करना चाहिए ।। १४६ । इसी प्रकारके अन्य भी अनर्थदण्डोंको जान करके जो श्रावक उनका त्याग करता है. उसका निर्दोष अहिंसा व्रत निरन्तर विजयको प्राप्त करता हैं ।।१४७।। राग-द्वेषके त्यागसे सर्वद्रव्योंमें समस्ताभावको अवलम्बन कर आत्मतत्त्वकी प्राप्तिका मूलकारणभूत सामायिक बारंबार करना चाहिए।।१४८।। रात और दिनके अन्तमें अर्थात् प्रातःकाल और सायंकालमें मनकी चञ्चलताको रोककर यह सामायिक अवश्य ही करना चाहिए। दोनों सन्ध्याओंके सिवाय अन्य समयमें किया गया सामायिक दोषके लिए नहीं ; अर्थात् दोष-कारक नहीं है, प्रत्युत वह गुणके लिए ही होता हैं ।।१४९।। सामायिकका आश्रय करनेवाले पुरुषोंके अणुव्रत समस्त सावद्ययोगके परिहारसे चरित्र मोहके उदयमें भी महाव्रतपनेको प्राप्त होते है यह प्रथम सामायिक शिक्षावत हैं ॥ ५० । प्रतिदिन धारण किये गये सामायिकरूप संस्कारको स्थिर करनेके लिए दोनों पक्षोंके अर्धभागमें अर्थात् अष्टमी और चतुर्दशीके दिन उपवास अवश्य ही करना चाहिए ।।१५१।। प्रोषध (उपवास) दिनकें पूर्व दिनार्धमें अर्थात् मध्यान्हकाल में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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