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________________ ८८ श्रावकाचार-संग्रह क्षीरवक्षोपशाखाभि: उपहृत्य च भूतलम् । स्नाष्या तत्रास्य माताऽसौ सुखोष्णमन्त्रितर्जलैः॥१२५ सम्यग्दृष्टिपदं बोध्यविषयं द्विरुदीरयेत् । पदमासन्न भव्येति तद्वद्विश्वेश्वरेत्यपि ॥ १२६ तत जितपुण्येति जिनमातृपदं तथा । स्वाहान्तो मन्त्र एषः स्यान्मातुः स्नानसंविधौ ।। १२७ चर्णि-: सम्यग्दृष्टे सम्यग्दष्टे आसन्नभव्य आसन्न भव्ये विश्वेश्वरे विश्वेश्वरे जितपुष्पे ऊजित पुण्ये, जिनमात: जिनमातः स्वाहा । यथा जिनाम्बिकापुत्रकल्याणान्यभिपश्यति । तथेयमपि मत्पत्नीत्यास्थयेमं विधि भजेत् ।। १२८ तृतीयेऽहनि चानन्तज्ञानदी भवेत्यमुम् । आलोकयेत्समुत्क्षिप्य निशि ताराङ्कितं नभः ।। १२५ पुण्याहघोषणापूर्व कुर्याद् दानं च शक्तितः । यथायोग्यं विदध्याच्च सवस्याभयघोषणाम् ॥ १३० जातकर्मविधिः सोऽयमाम्नातः पूर्वसूरिभिः । यथायोगमनुष्ठेयः सोऽद्यत्वेऽपि द्विजोत्तमैः ॥ १३१ नामकर्मविधाने च मन्त्रोऽयमनकोय॑ते । सिद्धार्चनविधौ सप्तमन्त्रा: प्रागनुवणिताः ।। १३२ ततो दिव्याष्टसहस्त्रनामभागी भवादिकम् । पदत्रितयमुच्चार्य मन्त्रोऽत्र परिवर्त्यताम् ।। १३३ चूणिः- दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव,विजयाष्ट सहस्रनामभागी भव, परमाष्टसहस्रनाम भागी भव । शेषो विधिस्तु निःशेषप्रागुक्तो नोच्यतो पुनः । बहिर्यानक्रियामन्त्रस्ततोऽयमनुगम्यताम् ।। १३४ चाहिए ॥१२४॥तदनन्तर बड,पीपल आदि क्षीरी (दूधवाले ) वृक्षों की कोमल डालियोंसे पृथ्वीको शोभित कर और उस पर पुत्रकी माताको बिठाकर मंत्रित सुहाते उष्ण जलसे स्नान कराना चाहिए ।।१२५॥ माताको स्नान करानेका मंत्र यह हैं-प्रथम ही सम्बोधनान्त सम्यग्दृष्टि पद दो बार कहे, तदनन्तर आसन्नभव्या,विश्वेश्वरी,जितपुण्या और जिनमाता इन पदोंको भी सम्बोधनान्त कर दो-दो बार बोले और अन्त में स्वाहा शब्द कहैं। अर्थात'सम्यग्दष्टे सम्यग्दष्टे,आसन्नभव्ये आसन्नभव्ये. विश्वेवरि विश्वेश्वरि,जितपुण्ये ऊर्जितपुण्ये जिनमातः जिनमातः स्वाहा' (हे सम्यग्दर्शनधारिणी), निकटभव्य, सर्वस्वामिनि, उत्कृष्ट पुण्यशालिनि जिनमाता, तू कल्याणकारिणी हो) यह मंत्र पुत्रकी माताको स्नान कराते समय बोलना चाहिए॥१२३-१२७॥जिसप्रकार तीर्थकरोंकी मातापुत्रकेकल्याणकोंको देखती है,उसी प्रकार मेरी यह पत्नी भी देखे,इस आस्थाके साथ स्नानकी विधि करे॥१२८॥ तीसरे दिन रात्रिके समय 'अनन्तज्ञानदर्शी भव' (तू अनन्तज्ञान-दर्शी हो) यह मंत्र पढकर उस पुत्रको उठाकर ताराओं से व्याप्त आकाश दिखाना चाहिए ।१२९।। उसी दिन पुण्याहवाचनके साथ शक्तिकेअनुसारदानकरे और यथासंभव सब जीवोंके अभय-घोषणा करनीचाहिए।। १३०। पूर्वाचार्योने यह जातकर्म या जन्मोत्सवकी विधि कही हैं : आजके समयमें भी ब्राह्मणोंको यथायोग्य यह विधि करना चाहिए।।१३१|अब नाम कर्म की विधिके समय बोले जाने वाले मंत्रों को कहते हैं-नामसंस्कारके समय सिद्धोंकी पूजा करने के लिए प्रयुक्त होनेवाले सप्तपीठिका मंत्र तो पूर्ववणित ही हैं। तत्पश्चात् 'दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव' आदि तीन पदोंका उच्चारण कर मंत्र-परिवर्तन कर लेना चाहिए । अर्थात् 'दिव्याष्टसहस्रनामभागी भव' ( दिव्य एक हजार आठ नामोंका धारक हो), 'विजयाष्टसहस्रनामभागी भव' (विजयरूप एक हजार आठ नामोंका धारक हो), परमाप्टसहस्रनामभागी भव' (अति उत्तम एक हजार आठ नामों का धारक हो) ये मन्त्र पढना चाहिए ।। १३२१३३।। मन्त्रों का संग्रह मूल में दिया गया हैं । नामसंस्कार की शेष समस्त विधि पहले कही जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001551
Book TitleShravakachar Sangraha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1988
Total Pages526
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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