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________________ १८ ] अष्टसहस्री [ द्वि० प० कारिका २६ स्यानुमानादागमाद्वा सिद्धत्वायोगात् । प्रतिभाससमानाधिकरणत्वानुमागात्तत्सिद्धिरिति' चेन्न, तस्य विरुद्धत्वात्, प्रतिभासतद्विषयाभिमतयोः कथंचिद्भदे सति समानाधिकरणत्वस्य प्रतीतेः सर्वथा प्रतिभासान्तःप्रविष्टत्वासाधनात् स्वविषयस्य' । न हि शुक्लः पट इत्यादावपि सर्वथा गुणद्रव्ययोस्तादात्म्ये सामानाधिकरण्यमस्ति । सर्वथाभेदवत् प्रतिभासस्वरूपं प्रतिभासते इत्यत्रापि' न प्रतिभासतत्स्वरूपयोर्लक्ष्यलक्षणभूतयोः सर्वथा तादात्म्यमस्ति, प्रतिभासस्यसाधारणासाधारणधर्माधिकरणस्य स्वस्वरूपादसाधारणधर्मात्कथंचिद्ध दप्रसिद्धर अद्वैतवादी-“प्रतिभाससमानाधिकरणरूप" अनुमान से उसकी सिद्धि हो जाती है । जैन-नहीं, क्योंकि यह हेतू साध्य से विपरीत का साधक होने से विरुद्ध है। प्रतिभास और उसके विषयरूप प्रतिभास्य को स्वीकार करने में कथंचित् भेद के होने पर समानाधिकरणत्व की प्रतीति होती है अतः स्वविषयरूप प्रतिभास्य को सर्वथा प्रतिभास के अन्तःप्रविष्ट रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि श्वेत वस्त्र इत्यादि में भी सर्वथा गुण और द्रव्य का तादात्म्य स्वीकार कर लेने पर समानाधिकरण नहीं बन सकता है। जिस प्रकार से सर्वथा भेद प तथैव "प्रतिभासस्वरूपं प्रतिभासते" प्रतिभास का स्वरूप प्रतिभासित हो रहा है। इस वाक्य में भी लक्ष्य-लक्षणभूत प्रतिभास और उसके स्वरूप में सर्वथा तादात्म्य-अभेद नहीं हो सकता है क्योंकि साधारण और असाधारण धर्म के आधारभूत प्रतिभास में साधारण धर्मरूप स्वरूप से कथंचित् भेद प्रसिद्ध है । अन्यथा उसके समानाधिकरण का अभाव हो जावेगा। प्रतिभास का साधारणधर्म प्रतिभास मात्र अथवा सत्वादि हैं एवं असाधारण धर्म ज्ञान स्वरूप है और अचेतन है इस तरह साधारण और असाधारण धर्म के आधारभूत प्रतिभास में ज्ञान ही स्वरूप है और वह असाधारण धर्म है। जैसे असाधारण ज्ञान स्वरूप प्रतिभासित होता है वैसे ही घटपटादिसत्व भी प्रतिभासित होते हैं क्योंकि सत्व भी प्रतिभास का असाधारण धर्म है। उसमें उस असाधारण धर्म से कथंचित् भेद प्रसिद्ध है। अन्यथा-यदि प्रतिभास में स्वरूप से कथंचित् भेद न मानों तो समानाधिकरण का अभाव हो जायेगा। जैसे सुवर्ण, सुवर्ण इसमें सर्वथा अभेद है अथवा सह्याचल और विंध्याचल इसमें सर्वथा भेद सिद्ध है। इसलिये "जो प्रतिभास समानाधिकरण" है वह प्रतिभास से कथंचित् भिन्न है। जैसे प्रतिभास का स्वरूप और प्रतिभास समानाधिकरणरूप S 1 ब्रह्माद्वैत सिद्धिः । दि० प्र०। 2 तस्यानुमानस्य विरुद्धत्वं वर्ततेऽयं हेतुः स्वसाध्यं न साधयति । दि० प्र०। 3 स्याद्वाद्याह । हे अद्वैतवादिन् । प्रतिभास्यप्रतिभास्ययोः साध्यसाधनयोः कथञ्चिदभेद: सर्वथाऽभेदो वेति प्रश्नः । कथञ्चिभेदे सति समानाधिकरणत्वं घटते । सर्वयाऽभेदे सति प्रतिभाससमानाधिकरणत्वमयं हेतुः स्वविषयस्य सर्वस्य ग्रामारामादेः प्रतिभासान्तः प्रविष्टत्व लक्षणं स्वसाध्यं न साधयति । दि० प्र०। 4 सर्वस्य वस्तुनः । ब्या० प्र०। 5 यथा सर्वथाभेदे सामान्याधिकरण्यं नास्ति तथा सर्वथाऽभेदेऽपि किन्तु कथञ्चिद्भदे घटते । दि० प्र० । घटवत् । आशंक्य । ब्या० प्र०। 6 ब्रह्माद्वैतवादिनोभिप्रायमनूद्य दूषयति । ब्या० प्र०। 7 न केवलं रूपं प्रतिभासते । ब्या० प्र०। 8 गुणिगुणयोः । दि० प्र० । 9 ज्ञानस्य । ब्या० प्र० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001550
Book TitleAshtsahastri Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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