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________________ ४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ७ विश्वस्यकत्वप्रसङ्गात्' इति तदसत्', 'चित्रज्ञानस्याप्येकात्मकत्वाभावप्रसङ्गात् पीताकारसंवेदनस्य नीलाद्याकारसंवेदनादन्यत्वात्, 'तद्वद्विरुद्धधर्माध्यासात् । यदि पुनरशक्यविवेचनत्वात्पीताद्याकारसंवेदनमेकात्मकमुररीक्रियते तदा सुखादिसंवेदनेन' कोपराधः कृतः ? 'तस्याप्यशक्यविवेवनत्वादेवैकात्मकत्वोपपत्तेः, पीताद्याकाराणामिव 'सुखाद्याकाराणां चैतन्यान्तरं नेतुमशक्यविवेचनत्वसद्भावात् ।। [ माध्यमिकबौद्धः कथयति ज्ञानं निरंशमेकरूपमिति ] तोकात्मकमेव सुखादिचैतन्यं न पुनरसंकीर्णविशेषात्मक"मित्यपि न मन्तव्यं, चित्रज्ञानस्याप्यसंकीर्णविशेषात्मकत्वाभावप्रसङ्गात् । तथा च सति न तच्चित्रमेकज्ञानवत् । अर्थात् जैसे सुखज्ञान भिन्न है और ज्ञेय पदार्थों का ज्ञान भिन्न है वैसे नील और पीत के ज्ञान भिन्नभिन्न ही हैं। चित्राद्वैतवादी-चित्रज्ञान में पीतादि आकारों का विवेचन करना अशक्य है, अतः पीताद्याकार ज्ञान को हम एकरूप स्वीकार करते हैं। जैन-यदि आप ऐसा मानते हैं तब तो यह बताइये कि सुखादि ज्ञान ने क्या अपराध किया है ? उनमें भी अशक्य विवेचन होने से ही एकरूपता बन जाती है । पीताद्याकार के समान ही सुखाद्याकारों को भी चैतन्यान्तर प्राप्त कराने में अशक्य विवेचन का सद्भाव है अर्थात् सुखादि भिन्न चैतन्य है और ज्ञान भिन्न चैतन्य है ऐसा विवेचन करना अशक्य ही है। [ माध्यमिक बौद्ध ज्ञान को निरंश सिद्ध करता है ] बौद्ध-"सुखादि चैतन्य एकरूप ही हैं किन्तु भिन्न-भिन्न विशेष रूप नहीं हैं ।" ऐसा ही मान लेना उचित होगा। जैन-ऐसी मान्यता भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो चित्र ज्ञान भी असङ्कीर्ण विशेषात्मक-भिन्न-भिन्न नहीं बन सकेगा पुनः चित्रज्ञान को एक मान लेने पर वह चित्रज्ञान नहीं कहलायेगा, एक ज्ञान के समान । अर्थात् जसे घट आदि एक पदार्थ के ज्ञान में यह चित्रज्ञान' है ऐसा व्यवहार नहीं होता है वैसे ही यदि चित्रज्ञान भी एक रूप है तो उसे चित्रज्ञान कैसे कहेंगे? 1 जैनरुच्यते। 2 चित्राद्वैतवादिनश्चित्रज्ञानमेकमेव वदन्ति । 3 नमेयज्ञानवत्)। 4 पीताद्याकाराणां चित्रज्ञाने। 5 सुखादि चैतन्येन इति पा० (ब्या० प्र०, दि० प्र०) 6 सुखादि चैतन्यस्य । (दि० प्र०) 7 देवदत्तस्य सुखदुःखाकाराणां यज्ञदत्तसन्तानं प्रति प्रापयितुं पृथक्कर्तुमशक्यत्वात् । (दि० प्र०) 8 देवदत्तसुखाद्याकाराणां यज्ञदत्तसन्तानं प्रति पृथक्कर्तुमशक्यत्वात् । (द्वितीयैकवचनम्)। 9 सौगत: (दि० प्र०) 10 निरंशैकज्ञानवादी माध्यमिक: प्राह। 11 अनेकान्तात्मकं न । (दि० प्र०) 12 जैनः । (दि० प्र०) 13 एकात्मकत्वात् = हे संवेदनाद्वैतवादिन् चित्रज्ञानस्य भिन्नविशेषाभाव ऐक्ये सति तत् चित्रज्ञानं चित्रं नानात्मकं न भवति यथा एकज्ञानम्। (दि० प्र०) 14 चित्रज्ञानस्यैकत्वे। 15 परः । (दि० प्र०) 16 माध्यमिकः प्राह । (दि० प्र०) 17 घटाचेकपदार्थज्ञाने यथा चित्रव्यवहारो न । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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