SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 454
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अस्तिनास्ति का स्वरूप ] प्रथम परिच्छेद [ ३८५ साध्यानपि विशेष्यान्प्रतिपद्येत । प्रत्येति' च तान् । ततोवश्यं साक्षात्कुर्वीत तद्धेतून', साध्येतरापेक्षायां सत्यां साधनेतरस्वभावाभ्यां तत्साक्षात्करणे विरोधाभावात् । अनपेक्षायां तु विरोधः, क्वचिदेकत्र साध्ये हेतूनां साधनत्वेतरयोरनुपलम्भात् । यतश्चैवं प्रसिद्धमुदाहरणं, वादिप्रतिवादिनोर्बुद्धिसाम्यात् 'तस्माद्यदभिधेयं तद्विशेष्यम् । 'यथोत्पत्त्यादिरपेक्षया हेतुरहेतुश्च साध्येतरयोः । तथा च, विमत्यधिकरणं सत्त्वाभिधेयत्वादि, तस्मात्साध्यसाधनधर्मविशेषणापेक्षया विशेष्यम् । इत्यनुमानादेकस्य विशेषणविशेष्यात्मकत्वविरोधनिरासः । यद्वा विशेष्यं तदभिलाप्यं, यथोत्पत्त्यादि, विशेष्यं चास्तित्वादिवस्तुरूपं, तस्मादभिलाप्यम्, इति और असाध्य की अपेक्षा के होने पर साधन और असाधन स्वभाव के द्वारा उन हेतु को साक्षात् करने में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है, किन्तु साध्य और असाध्य की अपेक्षा के न रखने पर ही हेतु और अहेतु का विरोध है। किसी एक ही अग्निमत्त्व आदि साध्य में हेतु को साधन और असाधनरूप मानने में विरोध की उपलब्धि नहीं होती है, इसीलिये यह हेतु उदाहरणरूप में प्रसिद्ध है, क्योंकि वादी और प्रतिवादी दोनों की बुद्धि में समानता है इसलिये जो अभिधेय-वाच्य है, वह विशेष्य है। अर्थात् जो वाच्य है, वही विशेषण के योग्य है, जैसे इस व्याप्ति से जीवादि को धर्मी सिद्ध किया है, वैसे ही अस्तित्वादि विशेषणों को भी धर्मी कहा है, ऐसा समझना चाहिये । जैसे साध्य और असाध्य में अपेक्षा से उत्पत्तिमत्त्वादि हेतु और अहेतु दोनों हैं । उसी प्रकार से विवादापन्न सत्त्व-वाच्यत्वादि भी अपेक्षा से हेतु और अहेतु दोनों रूप हैं। इसलिये साध्य (विधेय-प्रतिषेध्यात्मा) साधन (विशेष्यत्वात, शब्दगोचरत्वात् ) धर्म विशेषण की अपेक्षा से विशेष्य है। इस अतुमान से एक सत्त्वादि धर्म में विशेषण-विशेष्यात्मक विरोध का निरास हो जाता है । अथवा जो विशेष्य है वह अभिलाप्य है जैसे उत्पत्ति आदि और अस्तित्वादि वस्तुरूप विशेष्य हैं इसीलिये वे अभिलाप्य–वाच्य हैं। इस कथन से "वस्तुस्वरूप अनभिलाप्यअवाच्य है" इसका खण्डन कर दिया गया समझना चाहिये। 1 तमुग्न्यादि प्रतिपत्तिरपि मा भूदित्याह । (ब्या० प्र०) 2 साध्यान् । (दि० प्र०) 3 तस्याग्निविनश्वरशब्दादिसाध्यस्य हेतून् धूमादिकृतकत्वादीन् । (दि० प्र०) 4 इति व्याप्तिः । उत्तरतृतीयभाष्यचरमभागे वक्ष्यमाणं सत्त्वाभिधेयत्वादित्येतदत्रापि पक्षत्वेन प्रतिपत्तव्यम् । अन्तदीपकं सर्वत्र योज्यमित्युत्तरत्रप्रतिपादनात् । (दि० प्र०) 5 साध्यधर्मः । (दि० प्र०) 6 अपेक्षया हेत्वहेतुभूतोत्पत्यादिर्यथाऽभिधेयश्च विशेष्यश्च इति भावः । (दि० प्र०) 7 दृष्टान्तः । भावे च । उपनयः । (दि० प्र०) 8 अत्रापि पूर्ववत् पक्षवचनम् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy