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________________ अष्टसहस्री ३५२ ] [ कारिका १६ इति वचनान्नोक्तोपालम्भ इति चेन्न, समारोपव्यवच्छेदविकल्पस्य स्वसंवेदनव्यवस्थानेपि' 'विकल्पान्तरापेक्षत्वप्रसङ्गान्नीलादिस्वलक्षणदर्शनवन्निर्विकल्पकत्वाविशेषात् । वस्तुदर्शनसमारोपव्यवच्छेदयोरन्यतरस्यापि स्वतस्तत्त्वापरिनिष्ठितावितरेतराश्रयदोषः । समारोपो हि येन व्यवच्छिद्यते स निश्चयः । स्वरूपमनिश्चिन्वन्नपि यदि स्वतः परिनिष्ठापयेत्तदा वस्तुदर्शनमपि, विशेषाभावात् । तथा' च किं निश्चयापेक्षया ? वस्तुदर्शनस्य निश्चयापेक्षायां वा निश्चयस्वरूपसंवेदनस्यापि निश्चयान्तरापेक्षणादनवस्था स्यात् । 10निश्चयाद्वस्तु जैन-ऐसा नहीं कह सकते, समारोप के व्यवच्छेदक विकल्प में स्वसंवेदन का अवस्थान होने पर भी विकल्पांतर की अपेक्षा का प्रसंग आता है, क्योंकि नीलादि स्वलक्षण दर्शन के समान निर्विकल्पत्व दोनों में समान है। अर्थात् जैसे नीलादि स्वलक्षण दर्शन के स्वस्वरूप का व्यवस्थापन करने के लिये विकल्पांतर होना चाहिये, वैसे ही समारोप व्यवच्छेद विकल्प के भी स्वस्वरूप का व्यवस्थापन करने के लिये अन्य विकल्पांतर होना चाहिये, इस तरह अनवस्था आती ही जावेगी। वस्तु दर्शन-नीलादि क्षण का प्रत्यक्ष और समारोप-अक्षणिक का व्यवच्छेद इन दोनों में से किसी एक को भा स्वतस्तत्त्व में परिसमाप्ति न होने पर इतरेतराश्रय दोष आ जाता है। जिसके द्वारा क्षणिक में नित्य का समारोप दूर किया जाता है वह निश्चय अर्थात् विकल्प है। यदि वह विकल्प स्वरूप का निश्चय न करते हुए भी स्वतः स्वस्वरूप का परिनिष्ठापन कर देवे तब तो वस्तु दर्शन (नीलादि क्षण का प्रत्यक्ष) भी स्वतः स्वस्वरूप का परिनिष्ठापन कर देवे, क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है और फिर वस्तु दर्शन में विकल्प की अपेक्षा से भी क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । अथवा यदि आप कहें कि वह वस्तु दर्शन (नीलादि क्षण का प्रत्यक्ष) विकल्प की अपेक्षा करता है तब तो विकल्प के स्वरूप-सवेदन में भी विकल्पांतर की अपेक्षा बनी रहने से अनवस्था दोष आ जावेगा। विकल्प से वस्तु दर्शन की परिसमाप्ति होती है, तथा वस्तु दर्शन से निश्चय (विकल्प) के स्वरूप की समाप्ति होती है, तब तो परस्पराश्रय दोष आता है। इसलिये विकल्प के समान शब्द का सर्वथा अन्यापोह ही अर्थ नहीं है। इसी उपर्युक्त कथन से बौद्ध के इस कथन का भी खण्डन किया गया समझना चाहिये जो कि इस प्रकार है अतत्कार्यकारण की व्यावृत्ति एक ही प्रत्यवमर्शादि ज्ञान से एक अर्थ के साधन में हेतु है, 1 ततश्च । (व्या० प्र०) 2 कर्मधारय । (ब्या० प्र०) 3 विकल्पस्य यत् सवेदनं तस्य व्यवस्थाने। (ब्या० प्र०) 4 दर्शनस्य विकल्पकप्रत्यक्षस्य। (ब्या० प्र०) 5 विकल्पः । कः । (ब्या० प्र०) 6 एकस्य । (दि० प्र०) 7 स्वरूपम् । (दि० प्र०) 8 निर्विकल्पकत्वस्य । (दि० प्र०) 9 वस्तुदर्शनस्य स्वत: स्वरूपपरिनिष्ठापने च। (दि० प्र०) 10 विकल्पज्ञानात् । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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