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________________ ३१२ ] अष्टसहस्री [ कारिका १५ [ जीवादिवस्तुनः स्वरूपं कि ? ] ___ तत्र' जीवस्य तावत्सामान्येनोपयोगः स्वरूपं, तस्य' तल्लक्षणत्वात्, उपयोगो लक्षणम्, इति वचनात् । ततोन्योऽनुपयोगः पररूपम् । ताभ्यां सदसत्त्वे प्रतीयते । तदुपयोगस्यापि' विशेषतो ज्ञानस्य स्वार्थाकारव्यवसायः स्वरूपम् । दर्शनस्यानाकारग्रहणं' स्वरूपम् । ज्ञानस्यापि परोक्षस्यावैशा स्वरूपम् । प्रत्यक्षस्य वैशा स्वरूपम् । दर्शनस्यापि 1 चक्षुरचक्षुनिमित्तस्य चक्षुराद्यालोचनं स्वरूपम् । अवधिदर्शनस्यावध्यालोचनं स्वरूपम् । परोक्षस्यापि मतिज्ञानस्येन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं स्वार्थाकारग्रहणं स्वरूपम् । अनिन्द्रियमात्रनिमित्तं श्रुतस्य12 [ जीवादि वस्तु का स्वरूप क्या है ? ] सामान्य से जीव का स्वरूप उपयोग है, क्योंकि वह जीव का लक्षण है "उपयोगो लक्षणं" यह सूत्रकार श्रीउमास्वामी आचार्य का सूत्र है । उससे भिन्न अनुपयोग यह जीव का पररूप है इस उपयोग एवं अनुपयोग के द्वारा ही जीवद्रव्य के अस्तित्व एवं नास्तित्व का अनुभव आता है । पुनः उस उपयोग के भी विशेषरूप से ज्ञान और दर्शन ये दो भेद हैं उसमें "स्वार्थाकार व्यवसाय" यह ज्ञान का स्वरूप है एवं "अनाकार ग्रहण" यह दर्शन का स्वरूप है। एवं ज्ञान के भी परोक्ष और प्रत्यक्ष दो भेद करने पर अवैशद्य परोक्षज्ञान का स्वरूप है । दर्शन में भी चक्षदर्शन तथा अचक्षुदर्शन का स्वरूप चक्षु आदि इन्द्रियों के द्वारा सत्तामात्र आलोचना करना है। अवधिदर्शन का स्वरूप मर्यादारूप वस्तु को सत्तामात्र अवलोकन करना है। परोक्षज्ञान में मतिज्ञान का स्वरूप इन्द्रियानिद्रिय निमित्तक एवं स्वार्थाकार ग्रहणरूप है । श्रुतज्ञान का स्वरूप अनिद्रियमात्र निमित्तक है, उसी प्रकार से प्रत्यक्ष ज्ञान में भी विकल और सकल के भेद से दो भेद कर देने पर विकल प्रत्यक्ष के अवधिज्ञान, मन.पर्ययज्ञान ऐसे दो भेद हैं एवं मन और इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित स्पष्ट रूप से स्वात्मा और पदार्थ का ग्रहण करना यह विकल-प्रत्यक्ष का स्वरूप है। तथा सम्पूर्ण द्रव्य और उनकी सम्पूर्ण पर्यायों को साक्षात् करना यह सकल प्रत्यक्षरूप केवलज्ञान का स्वरूप है। इस स्वार्थाकार व्यवसायात्मक-लक्षण स्वरूप से भिन्न इन ज्ञानों का अन्य सब रूप पररूप है। इन स्वरूप और पररूप के द्वारा ही ज्ञान का अस्तित्व एवं नास्तित्व जानना चाहिये। इसी प्रकार से विशेष विद्वानों को इनके उत्तरोत्तर विशेषों का भी स्वपर रूप से निर्णय कर लेना चाहिये क्योंकि इन ज्ञानों के अथवा प्रत्येक पदार्थों के विशेष-प्रतिविशेष (भेद) अनन्त पाये जाते हैं । 1 रूपान्तरस्वीकारात् । (ब्या० प्र०) 2 स्वरूपान्तरोपगमे । (ब्या० प्र०) 3 जीवस्य । (दि० प्र०) 4 उपयोगात् । (दि० प्र०) 5 स्वरूपपररूपाभ्याम् । (दि० प्र०) 6 प्रकृत । (ब्या० प्र०) 7 किञ्चिदिति । (ब्या० प्र०) 8 अस्पष्टत्वम् । (दि० प्र०) 9 अवधिमनःपर्ययकेवलाख्यस्य स्वरूपस्य । (दि० प्र०) 10 चक्षुनिमित्तस्य नेत्रेन्द्रियनिमित्तस्याचक्षुः श्रोत्रेन्द्रियादिनिमित्तस्य चक्षुः श्रोत्रेन्द्रियाद्यालोचनं स्वरूपम् । (दि० प्र०) 11 ग्रहणम् । (दि० प्र०) 12 श्रुतज्ञानस्य । श्रुतं मतिपूर्वमिति वचनात् । पूर्वं श्रोत्रेन्द्रियेण शब्दश्रवणं पश्चान्मनसार्थपरिज्ञानं श्रुतज्ञानं घर: किमर्थ जलाद्याहरणार्थम् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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