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________________ अनेकांत की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ प्रत्येक वस्तु कथंचिदेवावाच्यं न सर्वथा ] ततो' न सर्वथाभिधेयं वस्तुतत्त्वं नाप्यनभिधेयं, बाधकसद्भावात् । किं तर्हि ? कथञ्चिदवाच्यमेव तवेष्टं, कथञ्चित्सदेव, कथञ्चिदसदेव', कथञ्चिदुभयमेवेति । तथा चशब्दाकथञ्चित्सदवाच्यमेव, सर्वथाप्यसतोनभिधेयत्वधर्माव्यवस्थिते, कथञ्चिदसदवाच्यमेव, सर्वथापि सतोनभिलाप्यत्वस्वभावासंभवात् तदभिलाप्यत्वस्यापि सद्भावात्, कथञ्चित्सदसदवात्त्यमेव, स्वरूपपररूपाभ्यां सदसदात्मन एवावाच्यत्वधर्मप्रसिद्धरित्यपि भङ्गत्रयं समुच्चितमाचार्यैः, 'अवक्तव्योत्तराः शेषास्त्रयो भङ्गाः स्वहेतुत' इत्यने स्वयं समर्थनात्, इह 'तत्प्रति बौद्ध–मेरे वचन क्षणिक वस्तु के दर्शन (निर्विकल्पज्ञान) की परम्परा से उत्पन्न हुए हैं, किन्तु पर के वचन नहीं। जैन--यह कथन तो केवल स्वदर्शनानुरागमात्र ही है, परीक्षाप्रधान नहीं है क्योंकि सभी वचन समानरूप से विवक्षा को विषय करते हैं। [ प्रत्येक वस्तु कथंचित् ही अवाच्य है सर्वथा नहीं ] अतएव वस्तुतत्त्व सर्वथा अभिधेय नहीं है और न सर्वथा अनभिधेय ही है क्योंकि सर्वथा रूप कथन में ही बाधा देखी जाती है । बौद्ध एवं शब्दाद्वैतवादो-तो फिर वस्तुतत्त्व कैसा है ? जैन-कथंचित् (-युगपत् स्वपर द्रव्यचतुष्टय की अपेक्षा से) वस्तुतत्त्व अवाच्य ही है ऐसा समझो। यहाँ जैनाचार्य भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे भगवन् ! यही आपका इष्ट-मतशासन है । एवं प्रत्येक वस्तु कथंचित् सत्रूप ही है तथा कथंचित् असत्रूप ही है एवं कथंचित् उभयरूप ही है। तथा 'च' शब्द से कथंचित् “सत्अवाच्य ही है" क्योंकि जो वस्तु सर्वथा असत्रूप है, उसमें अवाच्य धर्म भी नहीं रह सकता है । तथा वस्तु कथंचित् "असदवाच्य ही है" क्योंकि सर्वथा सत्रूप वस्तु में भी अवाच्य स्वभाव असम्भव है एवं उस सत् में "वाच्य" स्वभाव भी पाया जाता है । वस्तु कथंचित् “सदसद् अवाच्य ही है" क्योंकि स्वरूप और पररूप के द्वारा सत्-असत्स्वरूप ही वस्तु में अवाच्य धर्म रह सकता है । इस प्रकार आचार्यदेव ने 'च' शब्द से इन भंगों का भी समुच्चय कर लिया है। ____ "अवक्तव्योत्तरा: शेषास्त्रयो भगाः स्वहेतुतः” इस कारिका द्वारा आगे स्वयं समर्थन करेंगे। यहाँ पर "कथंचित्ते सदेवेष्टं" इत्यादि कारिका में कहे गये भंगों की सिद्धि है क्योंकि बिना कहे गये का 1 अत्र स्याद्वादी वदति । ततस्तस्मात्कारणात् वस्तुत्वं सर्वथा वाच्यं न । सर्वथाऽवाच्यं न तहि किमस्ति । (दि० प्र०) 2 स्वद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया। (दि० प्र०) 3 परद्रव्यादिवतुष्टयापेक्षया। (ब्या० प्र०) 4 क्रमेण स्वपररूपादिचतुष्टयापेक्षया । (ब्या० प्र०) 5 अवाच्यत्व । (व्या० प्र०) 6 कथञ्चित्ते सदेवेष्टमित्यादि । (ब्या० प्र०) सच्च तदसच्च तद्वाच्यं चेति यसः । (दि० प्र०) 7 समन्तभद्राचार्यः । अग्रे समर्थनेऽपि तत्प्रतिज्ञानं कुतः । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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