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________________ २८६ ] अष्टसहस्री [ कारिका १४ (५), प्रतिषेधकल्पनासहविधिप्रतिषेधकल्पना च (६), क्रमाक्रमाभ्यां विधिप्रतिषेधकल्पना (७), च सप्तभङ्गीति व्याख्यानात् । आदिविरुद्धापि सप्तभंगी संभवति न वा? ] न चैवं प्रत्यक्षादिविरुद्धविधिप्रतिषेधकल्पनापि सप्तभङ्गी स्यादिति शक्यं वक्तुम्, अविरोधेनेति वचनात् । नानावस्त्वाश्रयविधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गयपि प्रसज्यते' इति च न चिन्त्यमेकत्र वस्तुनीति वचनात् ।। [ सप्तभंगी एव कथं ? अनंतभंगी अपि भवेत् का हानि ? ] नन्वेकत्रापि जीवादिवस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्मसद्भावात्तत्कल्पनानन्तभङ्गी ___ स्यादिति चेन्न, अनन्तानामपि सप्तभङ्गीनामिष्टत्वात् तत्रैकत्वानेकत्वादिकल्पनयापि' सप्ता अर्थात् सदवक्तव्य, असद्वक्तव्य, उभयावक्तव्य इन तीन के विषयभूत तीन वाक्य और भी हैं। उसी का स्पष्टीकरण (१) विधिकल्पना (२) प्रतिषेधकल्पना (३) क्रमतो विधि प्रतिषेध कल्पना ४) सह विधिप्रतिषेधकल्पना (५) विधि कल्पना सह विधि प्रतिषेध कल्पना च (६ प्रतिषेध कल्पना सह विधि प्रतिषेध कल्पना (७) क्रमाक्रमाभ्यां विधि प्रतिषेध कल्पना । इस प्रकार से सप्तभंगी का व्याख्यान किया गया है । [ प्रत्यक्ष आदि से विरुद्ध भी सप्तभंगी हो सकती है क्या ? ] शंका-एक ही वस्तु में प्रत्यक्ष आदि से विरुद्ध विधि प्रतिषेध कल्पना भी सप्तभंगी हो जावेगी। समाधान-ऐसा कहना शक्य नहीं है क्योंकि सूत्र में "अविरोधेन" इस पद को पहले ही ले लिया है। शंका-नानावस्तु के आश्रय से विधि प्रतिषेध कल्पना भी सप्तभंगी हो जावेगी। समाधान-यह कथन भी शक्य नहीं है, क्योंकि “एकत्र वस्तुनि' ऐसा पद ग्रहण किया है । [ सप्तभंगी ही क्यों अनन्तभंगी भी बनाइये, क्या बाधा है? ] तटस्थ जैन की शंका–एकत्र भी जीवादि वस्तु में विधीयमान और निषिध्यमान अनन्त-धर्मों का सद्भाव है अत: उन अनन्त-धर्मों की कल्पना अनन्तभंगी हो जावेगी तथा सप्तभंगी नहीं रहेगी। 1 उभयरूपस्तृतीयः सदसत् । चतुर्थोऽनुभयोऽवक्तव्यम् । (ब्या० प्र०) 2 तत्रैव वाक्ये एवमुत्तर त्रोभयत्रापि। (दि० प्र०) 3 प्रश्नः । (दि० प्र०) 4 सप्तभंगानां मध्ये । जीवद्रव्यापेक्षया एकत्वं पर्यायापेक्षयाऽनेकत्वं नित्यत्वमनि धर्मद्वयापेक्षया स्यादेकत्वं स्यादनेकत्वं स्याभयमित्यादिप्रकारेणापि । (दि० प्र०) 5 एकमेकं धर्म प्रतिसप्तभंगी संभवात् । तेषु मध्ये । नित्यानित्वम् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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