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________________ अष्टसहस्री [ कारिका १३ २७६ ] विकल्प्यं स्मर्तुमीष्टे व्यवहारी, प्रवृत्तिदर्शनात्, इति, तदप्यसम्यक्, कुतश्चिदपि दृश्यविकल्प्ययोरेकत्वाध्यवसायासंभवस्योक्तत्वात् । तत: स्वत एव व्यवसायात्मकत्वमभ्युपगन्तव्यं प्रत्यक्षस्य न पुनरभिधानजात्यादियोजनापेक्षया । चक्षुरादिज्ञानस्य कथञ्चिद्वयवसायात्मकत्वाभावे दृष्टसजातीयस्मृतिर्न' स्यात्, दानहिंसाविरतिचेतसः स्वर्गादिफलजननसामर्थ्यसंवेदनवत् क्षणक्षयानुभवनवद्वा' । व्यवसायात्मनो मानसप्रत्यक्षादृष्टसजातीयस्मृतिरिति चेन्न, अव्यवसायात्मनो क्षज्ञानात् 'समनन्तरप्रत्ययाव्यवसायात्मनो मनोविज्ञानस्योत्पत्तिविरोधाद्विकल्पवत, निर्विकल्पात्मकत्वान्मानसप्रत्यक्षस्याभिलापसंसर्गयोग्यताप्रतिभासाभावात् । अव्यवसायात्मनोप्यक्षज्ञानाददृष्ट विशेषसहकारिणः स्यादुत्पत्तिरिति चेत्, किमेवमक्षज्ञानस्य स्वयं चक्ष आदि से होने वाले निर्विकल्पज्ञान में कथंचितव्यवसायात्मकपने का अभाव स्वीकार कर लेने पर दष्टसजातीय की भी स्मति नहीं होगी अर्थात् कथंचित्-नीलादि ग्राहकत्व मक का अभाव है, किन्त स्वलक्षण ग्राहकत्व प्रकार से अभाव नहीं है। इस प्रकार से कचित अभाव स्वीकार करने पर वर्तमानकाल को दष्ट का सजातीय पूर्वदष्ट उसमें स्मति नहीं हो सकेगी। जैसे कि दान और अहिंसा से युक्त चित्त वाले को व्यवसायात्मक का अभाव स्वीकार कर लेने पर जिस प्रकार से स्वर्गादि के फल को उत्पन्न करने की सामर्थ्य की अथवा क्षणक्षय आदि को स्मति नहीं होती है । अथवा जैसे क्षणक्षय का अनुभव नहीं होता है। बौद्ध-व्यवसायात्मक मानस प्रत्यक्ष से दृष्टसजातीय की स्मति हो जावेगी। जैन ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि अव्यवसायात्मक समनन्तरप्रत्ययरूप अक्षजान से व्यव यात्मक मनोविज्ञान की उत्पत्ति का विरोध है। विकल्पज्ञान के समान अर्थात् जैसे विकल्पज्ञान अव्यवसायात्मक अक्षज्ञानरूप समनन्तरप्रत्यय से व्यवसायात्मक विकल्प की उत्पत्ति नहीं होती है और मानसप्रत्यक्ष तो निर्विकल्पात्मक है अतएव उसमें अभिलापसंसर्ग की योग्यता के प्रतिभास का अभाव है। बौद्ध -अदृष्टविशष है सहकारी जिसमें ऐसे अव्यवसायात्मक अक्षज्ञान से व्यवसायात्मक मानसप्रत्यक्ष की उत्पत्ति हो सकती है। 1 समर्थो भवति । (ब्या० प्र०) 2 अर्थे । (ब्या० प्र०) 3 एवं स्मृतिपूर्वकव्यवसायाभावे तदेवेदं नीलमिति कस्यापि नीले प्रवृत्तिन घटते दृष्टस्य क्षणिकतया नष्टत्वादिति भावः । (दि० प्र०) 4 अभिलापस्याभिलाप्यस्य च स्मरणोपायासंभवात्स्मानार्थेन शब्देन वा विकल्पो नोदेति यतः। (ब्या० प्र०) 5 सदृशः । (दि० प्र०) दृष्टं तत्र स्मृतिर्न स्यात । (दि० प्र०) 6 ज्ञान लक्षणस्य । (ब्या० प्र०) 7 प्राक् समनन्तरम् । ननु स्वर्गादिफलजननसामर्थ्य क्षणक्षये च पूर्वमपि व्यवसायोत्पत्तेरभावात् स्मृतिर्नस्यान्नीलादौ तु पूर्व व्यवसायोत्पत्तिसद्भावादिदानी न तस्य चक्षुरादिज्ञानस्य व्यवसायात्मकत्वाभावेपि स्मृति:-स्यादिति चेन्न । उक्तप्रकारेण पूर्वमपि तत्र व्यवसायोत्पत्यनुपपत्तेः । (दि० प्र०) 8 नीलादिविषयात् । (दि० प्र०) 9 कारणभूतात् । (दि० प्र०) 10 योग्यप्रतिभासात् इति पा० । (दि० प्र०) सामान्यवस्तु । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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