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________________ अत्यन्ताभाव की सिद्धि । प्रथम परिच्छेद [ २१७ . [ इतः पर्यन्तमितरेतराभावं प्रसाध्याधुनात्यंताभावं साधयंत्याचार्याः ] तथा केषाञ्चित्तत्त्वतोत्यन्ताभावापाकृतौ न क्वचित्किञ्चित्कथञ्चिन्न वर्तेत । वर्ततामिति चेत्, तथा सर्वं सर्वत्र सर्वथोपलभ्येत । न च ज्ञानादिकं घटादावुपलभ्यते, नापि रूपादिकमात्मादौ । न च किञ्चित्स्वात्मनेव परात्मनाप्युपलभ्येत ततः किञ्चित्स्वेष्टं तत्त्वं क्वचिदनिष्टेर्थे सत्यात्मनानुपलभमान': कालत्रयेपि तत्तत्र तथा नास्तीति प्रतिपद्यते एवेति सिद्धोत्यन्ताभावः । [ यहाँ तक इतरेतराभाव को सिद्ध करके अब आचार्य अत्यंताभाव को सिद्ध कर रहे हैं ] तथा अत्यंताभाव का लोप करने पर किन्हीं सांख्यों के यहाँ तत्त्वतः किसी जीव में किंचित्रूपादि, कथंचित्-सत्यरूप से नहीं रहें ऐसी बात नहीं है, किन्तु रहेंगे ही रहेंगे। शंका-रह जावें क्या बाधा है ? "सर्वं सर्वत्र विद्यते" सभी सब में रहते हैं यह सांख्यों का सिद्धान्त ही है। समाधान-तब तो सभी सब जगह सर्वथा-सभी प्रकार से उपलब्ध हो जावेंगे। किन्तु घटादिकों में ज्ञानादि की उपलब्धि नहीं पायी जाती है। तथा आत्मा आदि में रूप आदि भी नहीं पाये जाते हैं और कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है, कि जो स्वस्वरूप के समान ही पररूप से भी उपलब्ध होवे । इसीलिये जो आपका इष्ट तत्त्व (प्रधान) है, वह किसी अनिष्ट-अर्थ (अन्य के सिद्धान्त) में सत्यस्वरूप से उपलब्ध न होता हुआ तीन काल में भी वह आपका मत वहाँ-अन्य मत में उस प्रकार से-सर्वथा नहीं है, इस प्रकार से जाना ही जाता है। इस तरह से अत्यंताभाव की सिद्धि हो ही जाती है। 1 तथा न केषाञ्चित् इति पा० । (दि० प्र०) इतरेतराभावप्रकारेण । (दि० प्र०) 2 यथाऽन्यापोहानङ्गीकारे घटादौ पटादि वर्तते । पटादी घटादिर्वतैत । तथा केषाञ्चिदेकान्तवादिनामत्यन्ताभावानङ्गीकारे क्वचिद् घटादौ ज्ञानादिकमात्मादौ रूपादिकञ्चोपलभ्यते । अथेदानीमन्योन्याभावमभिधायात्यन्ताभावमुपक्रमते । (दि० प्र०) 3 उपलभ्यतां को दोषः । (ब्या० प्र०) 4 नुपलभ्यमानमिति पा०। (दि० प्र०) कथञ्चिद्वाक्यविवरणं सत्यात्मनेति । (ध्या०प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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