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________________ अत्यन्ताभाव की सिद्धि ] प्रथम परिच्छेद [ पर्यायार्थिकनयापेक्षयैवेतरेतराभावः संभवति न तु द्रव्यार्थिकनयापेक्षया ] तदेवं' पर्यायार्थिकनयप्राधान्याद्रव्यार्थिकनयगुणभावात्सर्वस्य' 'प्रसिद्धाऽन्यापोहव्यतिक्रममपाकरोतीति किं नः प्रयासेन । [ २१३ प्राणियों को सुख का मार्ग बता देती है । निष्कर्ष यह निकला कि जगत् में चैतन्यगुण से सहित आत्मा ही त्रैलोक्याधिपति है, महान् है, ज्ञान और सत्ता इसके मंत्री हैं । ज्ञान तो महामंत्री है और सत्ता उपमंत्री है इन दोनों मंत्रियों के साथ आत्मा अनादिकाल से लेकर अनंतकाल तक संपूर्ण लोकालोक में एकच्छत्र शासन करते हुये अनंतसुख, अनंतवीर्य गुणों का अनुभव करती है । यह कथन शुद्धद्रव्याचिकन या शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से है, ऐसा समझना चाहिये और इस आत्मा को शुद्ध, बुद्ध निरंजनरूप बना लेना चाहिये । स्वभावान्तरव्यावृत्तिः [ पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से ही इतरेतराभाव संभव है द्रव्यार्थिकनय से नहीं ] इस प्रकार से पर्यायार्थिकनय की प्रधानता से तथा द्रव्यार्थिकनय को गौण करने से सभी में स्वभावांतर से व्यावृत्ति प्रसिद्ध ही है और वह अन्यापोह – इतरेतराभाव के व्यतिक्रम — लोप को दूर करती है अर्थात् वह "स्वभावांतरात् स्वभावव्यावृत्तिः" इतरेतराभाव के अभाव का अभाव करती है अर्थात् इतरेतराभाव को सिद्ध करती है । इतने कथन से ही बस होवे । हम जैनों को अधिक प्रयास से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं है । विशेषार्थ - प्रत्येक वस्तु में अनंत धर्म पाये जाते हैं क्योंकि “गुणपर्ययवद्द्रव्यं” गुण और पर्यायों के समूह का नाम ही द्रव्य है, अतः एक द्रव्य में अनंतगुण और अनंतपर्यायें पाई जाती हैं । वे सभी गुण और पर्यायें परस्पर में एक दूसरे के स्वभाव से भिन्न-भिन्न ही हैं, जैसे जीव में दर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्य आदि गुण हैं, वे कभी भी एक दूसरेरूप नहीं होते हैं । नरनारकादि पर्यायें भी एक दूसरेरूप नहीं होती हैं, इसी का नाम ही तो इतरेतराभाव है । प्रत्येक द्रव्य के सभी गुण और सभी पर्यायें सत्रूप ही हैं न कि असत्रूप । अतः यह इतरेतराभाव प्रत्येक गुण, पर्यायों को वस्तु के प्रत्येक धर्मों को पृथक्-पृथक् व्यावृत्तिरूप कर देता है यह पर्यायार्थिकनय के द्वारा ही होता है। शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से सभी वस्तु सत्रूपमात्र हैं, उनमें भेद करने की आवश्यकता नहीं रहती है किन्तु गुणपर्यायों से भेद करना यह काम तो पर्यायार्थिकनय का है और उन गुण पर्यायों को पृथक्-पृथक् सिद्ध करना, संकररूप न होने देना इतरेतराभाव का काम है। Jain Education International सत्ता के दो भेद में जो महासत्ता का काम था, वह पहले विशेषार्थ में बता दिया है । यहाँ कुछ अवांतरसत्ता का खुलासा करते हैं जैसे मनुष्यपर्याय की सत्ता देवपर्याय की सत्ता से पृथक् है बचपन की सत्ता जवानी की सत्ता से पृथक् है और जवानी की सत्ता वृद्धावस्था की सत्ता से पृथक् है । गुणों 1 तद्वतस्तेभ्यो व्यावृत्तिरेकानेकस्वभावत्वादिति पूर्वोक्तानुमाने प्रयुक्तस्य तस्य हेतोः समर्थनं कृत्वेदानीं पूर्वोक्तं सर्वमुपसंहरतः प्राहुस्तदेवमिति । ( दि० प्र० ) 2 अर्थस्य । ( ब्या० प्र० ) 3 सती । (ब्या० प्र० ) 4 अपह्नवं । (ब्या० प्र०) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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