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________________ अष्टसहस्री [ कारिका ११ धर्माकाशकालविकल्पमशुद्धद्रव्यमनन्तपर्यायं सह' क्रमाच्च चिन्तितं तथा सन्मात्रं शुद्धद्रव्यमपि प्रतिपत्तव्यं', तस्यैव द्रव्यत्वविशेषणस्य द्रव्यव्यवहारविषयत्वसिद्धेः । २०८ ] I अभिन्न ही हैं । तत्त्वार्थ राजवार्तिककार श्रीअकलंकदेव ने इस भिन्नाभिन्नपक्ष में अच्छा वर्णन किया है, प्रथम ही प्रश्न होता है कि "व्ययोत्पादाव्यतिरेकात् द्रव्यस्य धौव्यानुत्पत्तिरिति चेत् न, अभिहितानवबोधात्" । अर्थात् व्यय और उत्पाद द्रव्य से अभिन्न हैं अतः द्रव्य ध्रुव नहीं रह सकता है ? ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है, आपने हमारे अभिप्राय को समझा नहीं है, हम जैन की मान्यता है कि द्रव्य का द्रव्यरूप से अवस्थान होने के कारण उसे धौव्य कहा है, न कि उत्पादव्यय से भिन्न होने के कारण धौव्य कहा है, क्योंकि हम द्रव्य से व्यय और उत्पाद को सर्वथा अभिन्न नहीं कहते हैं । यदि कहते तो धौव्य का लोप करना ठीक था, किन्तु कथंचित् व्यय और उत्पाद के समय भी द्रव्य स्थिर रहता है, अतः दोनों में भेद है और द्रव्य जाति का परित्याग दोनों ही नहीं करते हैं, उसी द्रव्य के ही होते हैं अतः अभेद है । यदि सर्वथा भेद मान लेवें तो द्रव्य को छोड़कर उत्पाद व्यय पृथक् मिलने चाहिये और सर्वथा उत्पाद व्यय से द्रव्य को अभेदरूप मान लेने पर तो सबका एकलक्षण ही हो जाने से एक लक्षण के शेष रहने से बचे हुये शेष का भी अभाव हो जावेगा, किन्तु हमने सर्वथा भेदपक्ष और सर्वथा अभेदपक्ष नहीं माना है, अतः उपर्युक्त दोष नहीं आते हैं, क्योंकि लक्ष्यभूत वस्तु से उसका लक्षण सर्वथा भिन्न नहीं माना गया है । यहाँ आत्मभूतलक्षण समझना चाहिये, जो कि लक्ष्य के अभाव में रह नहीं सकता है, जैसे अग्नि की उष्णता आत्मभूतलक्षण है, उस उष्णतालक्षण के अभाव में अग्निभूतलक्ष्य असंभव है । अतः वस्तु से उत्पाद, व्यय, धौव्य, संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदि की अपेक्षा से भिन्न हैं । प्रदेश की अपेक्षा से अभिन्न हैं । वस्तु से अभिन्न धर्मों में भी प्रत्येक के भूत, भावी, वर्तमान काल की अपेक्षा से नव भेद हैं, पुनः उसमें एक-एक में भी त्रिकाल की अपेक्षा नव-नव भेद करने से इक्यासी भेद सिद्ध हैं, क्योंकि द्रव्य से इन तीनों पर्यायों को अभिन्न कहने से एक 'तिष्ठति' - ठहरता है । यह अवस्था भी द्रव्यरूप है । "स्थास्यति " ठहरेगा यह अवस्था भी द्रव्यरूप ही है और 'स्थितं' - ठहरा था यह अवस्था भी द्रव्यरूप ही है । ऐसे ही 'विनश्यति' में और उत्पद्यते में भी लगा लेना चाहिये । अतएव सभी के पुनः नव-नव भेद हो जाते हैं और नाम, संख्या आदि से यदि द्रव्य से इनमें भेद नहीं मानोंगे, तब तो द्रव्य को त्रिलक्षणात्मक भी नहीं कह सकेंगे, तब तो वह द्रव्य शुद्ध सन्मात्र ही सिद्ध होगा, जो कि अभेद-ग्राही शुद्धसंग्रहनय की अपेक्षा से इष्ट भी है, सर्वथा नहीं । जिस प्रकार से जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल के भेद से अशुद्ध द्रव्य अनन्त पर्यायात्मक हैं । अर्थात् व्यवहारनय की अपेक्षा से जिसमें भेद विद्यमान हों, वह अशुद्ध द्रव्य है । वह प्रत्येक द्रव्य सह-युगपत् और क्रम से अनंत पर्यायात्मक हैं, क्योंकि सहभावी तो गुण होते हैं और क्रमभावी पर्यायें होती हैं, ऐसा कहा गया है । तथैव शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा से शुद्धद्रव्य सन्मात्र है, ऐसा भी समझना चाहिये । क्योंकि उसी अविवक्षित भेदरूप शुद्ध सन्मात्र में ही द्रव्यत्व विशेषण होने से उसमें द्रव्य व्यवहाररूप विषय होना सिद्ध है, तथाहि उसी सत्व को ही द्रव्यत्व सिद्ध करते हैं । 1 द्रव्यापेक्षया । (ब्या० प्र० ) 2 सन्मात्रद्रव्यत्वमेव नास्ति इत्याह । ( दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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