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________________ १९४ ] अष्टसहस्री [ कारिका ११ परतन्त्रतामुपलभ्य सर्वत्र सिद्धेऽसिद्धे वा का परतन्त्रतेति ब्रुवाणः कथं न परतन्त्रः ? [ कार्यकारणयोः परतन्त्रतानभ्युपगमे दोषानाहुराचार्याः ] कस्यचिदसिद्धस्यापि कार्यात्मनः2 कारणपरतन्त्रतोपपत्तेरन्यथा' कारणाभावेपि कार्योत्पत्तनिवारणायोगात्, कुतश्चित्कस्यचिदनुत्पत्तौ शश्वत्सत्त्वप्रसङ्गात्, सदकारणवन्नित्यमिति इस प्रकार कहता हुआ स्वयं परतंत्र क्यों नहीं है ? अर्थात् वह स्वयं ही अज्ञान के आधीन-परतंत्र ही है जबकि वस्तु में परतंत्रता को स्वीकार नहीं करता है। [ कार्य कारण में परतंत्रता को न मानने से आचार्य दोष दिखाते हैं ] असिद्ध भी कार्यस्वरूप में (घट में) कारण-मृत्पिड की परतंत्रता पाई ही जाती है। अन्यथाकारण के अभाव में भी कार्य को उत्पत्ति होने लगेगी उसका निराकरण कोई भी नहीं कर सकेगा। एवं किसी कारण से किसी कार्य की उत्पत्ति के न मानने पर हमेशा ही कार्य के सत्त्व का प्रसंग आ जावेगा। क्योंकि "सदकारणवन्नित्यं" सत् अकारणवान् है और नित्य होता है, ऐसा सूत्र पाया जाता है। भावार्थ-बौद्ध का कहना है कि संबंध तो परतंत्रता है, वह स्वतंत्र पदार्थों में असंभव है अतः संबंध नाम की कोई चीज नहीं है। इस पर जैनाचार्य ने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की निकटतारूप संबंध को अच्छी तरह से सिद्ध कर दिया है। पहले द्रव्य संबंध को देखिये। ज्ञान गुण और जीव गुणी में तथा मनुष्य पर्याय और जीव पर्यायवान् में यदि अपृथक्भावरूप तादात्म्य संबंध नहीं मानोगे तो स्वतंत्ररूप से न तो ज्ञानगुण और मनुष्यपर्याय हो सिद्ध होंगे और न ज्ञानगुण से लक्षित जीव ही सिद्ध होगा क्योंकि गुण और पर्याय के बिना द्रव्य नाम की कोई वस्तु ही नहीं है । अतः यदि गुण और पर्यायों का अपने आश्रयभूत द्रव्य से तादात्म्य संबंध नहीं रहेगा तो गुण, पर्याय और द्रव्य इन तीनों का ही अस्तित्व समाप्त हो जावेगा। क्षेत्र प्रत्यासत्ति का स्पष्टीकरण यह है कि चक्षु इन्द्रिय अपने सामने के पदार्थ को ही देख रही है तो योग्य क्षेत्र के ही पदार्थ को देखती है यह क्षेत्र का संबंध है। यदि चक्षुइन्द्रिय का योग्यदेश में विद्यमान पदार्थों से संबंध-देखनेरूप संबंध नहीं माना जावेगा तो चक्षु के द्वारा रूप का ज्ञान न होने से वे रूपी पदार्थ सिद्ध नहीं होंगे और चक्षुइन्द्रिय के विषय का अभाव होने से उसका अस्तित्व भी समाप्त हो जावेगा। 1 अंगीकृत्य । प्रत्यक्षेण ज्ञात्वा । (दि० प्र०) 2 घटादेः । (ब्या० प्र०) 3 स्या० हे सौगत ! संविन्मात्रकारणात्मसंविदाकारो वेद्याकारश्च द्वयमपि कार्यात्मा । तव मते स्वयमेव इत्यायात कार्याशासिद्धस्तस्य कारणाधीनत्वं नोत्पद्यते चेत्तदा संविन्मात्रलक्षणकारणाभावेपि संविदाकारवेद्याकारलक्षणायाः कार्योत्पत्तनिवारणं न घटते. कस्यचित्संविन्मात्रलक्षणकारणात्मन: कार्यरूपेणानुत्पत्तौ सत्यां नित्यं क्षणिकस्य वस्तुनः सत्त्वं प्रसजति । कस्मात्सदकारणवन्नित्यमिति सिद्धान्तात् । एवं सति क्षणिकवादिनः सौगतस्य द्रव्यादिभिः सह संबन्धाभावलाभमिच्छतो वस्तुनः क्षणिकत्वलक्षणमूलनाशो जातः । (दि० प्र०) 4 कार्यात्मन: कारणपरतन्त्रत्वानङ्गीकरणे। (दि०प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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