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________________ [ कारिका १० १६८ ] अष्टसहस्री [ नैयायिकाभिमतशब्दामूर्तत्वनिरासः ] ननु शब्दस्य पुद्गलपर्यायत्वे चक्षुषोपलम्भप्रसङ्गः, "स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः' इति वचनात्, अन्यथा सिद्धान्तविरोधादिति चेन्न, गन्धपरमाणुभिर्व्यभिचारात् । पुद्गलपर्यायत्वस्य गन्धपरमाणूनामदृश्यत्वान्न दर्शनमिति' चेच्छब्दपुद्गलानामपि ततः एव तन्मा भूत् । अथ 'मतमेतत्, चक्षुषोपलभ्योस्तु शब्दः, पुद्गलस्कन्धस्वभावत्वाद्घटवदिति, तदप्यपेशलं, गन्धस्यापि चक्षुरुपलभ्यत्वप्रसङ्गात्तत एव । अथ तस्यानुद्भूतरूपपुद्गलस्कन्धस्वभावत्वाच्चक्षुरुपलम्भताऽयोग्यत्वाच्च" न चक्षुषा दर्शनम् । तत एव शब्दस्य तन्मा भूत् । [ अब नैयायिक के द्वारा शब्द को आकाश का गुण मानने पर विचार किया जाता है ] नैयायिक--यदि आप शब्द को पुद्गल की पर्याय मानेंगे तब तो चक्षु के द्वारा उन शब्दों की उपलब्धि होनी चाहिये क्योंकि "स्पर्शरसगंधवर्णवंतः पुद्गलाः" ऐसा सूत्र पाया जाता है, अन्यथा यदि आप उन शब्दों में स्पर्शादि नहीं मानों, तो आपके सिद्धान्त से विरोध आता है। जैन-यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि गंधपरमाणुओं से व्यभिचार आता है वे भी पुद्गल की पर्याय हैं । अर्थात् आपने गंधपरमाणुओं को पौद्गलिक माना है, किन्तु वे चक्षु से दिखते नहीं हैं और उनका स्पर्श भी नहीं पाया जाता है। नैयायिक-हमारे यहाँ वे गंधपरमाणु अदृश्य हैं इसलिये नहीं दिखते हैं। जैन-उसी प्रकार से शब्द पुद्गल भी अदश्य हैं, अतः दृष्टिगत नहीं हो सकते हैं। नैयायिक-हमारा मत यह है कि "शब्द चक्षु के द्वारा प्राप्त करने योग्य है क्योंकि वह पुद्गल स्कन्ध का स्वभाव है, जैसे कि घट पुद्गलस्कन्धों से बना है अतः दृष्टिगत होता है।" जैन-आपका यह कथन भी ठीक नहीं है, गंध को चक्षु के द्वारा ग्रहण करने का प्रसंग प्राप्त हो जावेगा, क्योंकि उसी प्रकार से वह भी पुद्गलस्कन्ध का स्वभाव है, अर्थात् पुद्गल स्कन्ध में गन्ध के साथ रूप, रस, स्पर्श भी अविनाभावी हैं, अतः उसे भी दिखना चाहिये। नैयायिक-वह गंध तो अनुभूतरूप पुद्गलस्कन्ध का स्वभाव है, इसलिये चक्षु के द्वारा ग्रहण होने के अयोग्य है और इसीलिये वह चक्षुइन्द्रिय का विषय नहीं है। अर्थात् गंध के पुद्गलस्कन्ध अप्रगट हैं। जैन-इन्हीं दोनों हेतुओं से वह शब्द भी चक्षुइन्द्रिय का विषय मत होवे । अर्थात् शब्द भी अनुद्भूत पुद्गल का स्वभाव है एवं चक्षुइन्द्रिय से दीखने योग्य न होने से अदृश्य है ऐसा भी मान लेना उचित है। 1 चक्षुषा । (ब्या० प्र०) 2 तत एवाशब्दगन्धस्पर्शत्वात् शब्दपुद्गलानामपि दर्शनं मा भवतु । (दि० प्र०) 3 परः । (दि० प्र०) 4 पुद्गलस्कन्धस्वभावत्वादेव । (दि० प्र०) 5 गन्धस्य । अप्रकटरूप । (ब्या० प्र०) 6 भा। (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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