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________________ अष्टसहस्री [ कारिका १० [ अब अकलंकदेव के अभिप्रायानुसार प्रागभाव का लोप करने वाले सांख्य का खंडन करते हैं ] अब वृत्तिकार श्री अकलंकदेव इस प्रकार से कहते हैं कि कपिलमत का अनुसरण करने वाले साख्यों के यहाँ “प्रागभाव को स्वीकार न करने पर घटादि को अनादिपने का प्रसंग होने से घटादि की उत्पत्ति में पुरुष का व्यापार व्यर्थ हो जावेगा ।" १३० ] पुरुष व्यापार के बिना कदाचित् भी घटादिक होते हुये नहीं देखे जाते हैं । इस प्रकार से सांख्यों प्रतिकार्य द्रव्य का युक्ति से प्रतिपादन करना चाहिये । प्रागभाव के निह्नव करने पर वह कार्यद्रव्य अनादि हो जावेगा । यह दूषण ठीक ही कहा गया है, क्योंकि आपाद्य - जो सांख्य है, उसके यहाँ भी उद्भाव्य के समान - चार्वाक मत के समान ही दूषण प्राप्त होते हैं । अर्थात् जिनके लिये दोषों का आपादन करना - कहना है, ऐसा सांख्य यहाँ पर आपाद्य माना गया है और जिसके प्रति दोष उद्भावित - प्रगट किये जा चुके हैं ऐसा चार्वाक यहाँ पर उद्भाव्य कहा गया है । Jain Education International (४) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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