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________________ ११८ ] अष्टसहस्री [ कारिका १० 'प्रत्ययविशेषसद्भावात् 'प्राक्सत्तादयः' सत्ताभेदाः किमु नेष्यन्ते ? अथ 'प्रत्ययविशेषात्तद्विशेषणान्येव भिद्यन्ते, 'तस्य तन्निमित्तकत्वात्, न तु सत्ता । ततः सकैवेति मतं तिर्हि 'तत एवाभावभेदोपि मा भूत्, सर्वथा विशेषाभावात् । न चैकोप्यभावः क्षित्यादिविवर्त्तघटशब्दादिव्यतिरेकेण प्रत्यक्षतः 1 प्रतिभासते। केवलं गतानुगतिकतया लोकः पृथिव्यादिभूतचतुष्टयविषयमेव13 1*प्रागभावादिविकल्पमात्रवशात्प्रागभावादिव्यवहारं प्रवर्तयति द्रव्यादिवि चार्वाक-तब तो पहले था, पश्चात् होगा, वर्तमान में है, इस प्रकार काल भेद से प्रत्यय-ज्ञानविशेष का सदभाव देखा जाता है एवं पटना में है, चित्रकट में है इत्यादि देशभेद से तथैव घट है. पट है इत्यादि द्रव्यभेद से और रूप है, रस है इत्यादि गुणभेद से तथा च प्रसारण है, गमन है इत्यादि क्रिया के भेद से भी ज्ञानविशेष का सद्भाव पाया जाता है । प्राक् सत्ता-प्रागभाव आदिरूप से सत्ताभाव के भी भेद आप क्यों नहीं स्वीकार करते हैं ? योग-ज्ञान विशेष से उस भाव-सत्ता के विशेषण ही भेद को प्राप्त होते हैं क्योंकि वह ज्ञानविशेष उन विशेषणों में निमित्तमात्र है न कि सत्ता, और इसीलिये वह सत्ता एक ही है। चार्वाक-उसी हेतु से ही अभाव में भी भेद कल्पना मत होवे, क्योंकि सत्ता और असत्ता दोनों में कोई अन्तर नहीं है अर्थात् अभाव ज्ञानविशेष से ही वे अभाव विशेषण भेद को प्राप्त हो जाते हैं। अतः अभाव ज्ञानविशेष निमित्त हैं न कि असत्ता। और दूसरी बात यह है कि एक भी अभाव पृथ्वी आदि की पर्यायरूप घट एवं शब्दादि से अतिरिक्त हुआ प्रत्यक्ष से प्रतिभासित नहीं होता है। अर्थात् घटाभाव आदिरूप शब्द ही सुनने में आते हैं किन्तु अभाव पृथक् रूप से प्रतीति में नहीं आता है। केवल यह लोक-संसार के प्राणी गतानुगतिकरूप से पृथ्वी आदि भूत-चतुष्टय के विषय को ही प्रागभावादि विकल्पमात्र के निमित्त से प्रागभावादिरूप से व्यवहृत कराते हैं । जैसे कि द्रव्यगुण कर्मादि के विकल्पमात्र से वैशेषिकमत में द्रव्य गुण कर्मादि व्यवहार होता है अथवा जिस प्रकार से नैयायिक के मत में प्रमाणादि के विकल्प-ज्ञान से प्रमाणादि व्यवहार होता है। सांख्य के मत में 1 सामान्यविशेषसमवायेषु परैः सत्ताया अनभ्युपगमात्तत्र प्रत्ययविशेषः सद्भावो न प्रदर्शितः । (दि० प्र०) 2 पूर्व पश्चात्सत्तादि । (दि० प्र०) 3 प्रागासीदित्यादयः। 4 सत्ता। प्रागासीदिति कालादीनि । (दि० प्र०) 5 प्रत्ययविशेषस्य विशेषणनिमित्तकत्वात् । 6भिद्यते । (दि० प्र०) 7 अभावप्रत्ययविशेषस्य विशेषणभेदहेतुकत्वात् । 8 अभाववाद्याह। हे भाववादिन् ! यद्येवं तहि तत एव प्रत्ययविशेषादेव तद्विशेषणान्येव भिद्यन्ते तस्यतन्निमित्तकत्त्वादभावभेदोपि मा भवतु कुत: भावाभावयोः सर्वथापि विशेषो नास्ति यतः । (दि० प्र०) 9 अथ चार्वाक आह । (दि० प्र०) 10 भेदेन । (दि० प्र०) 11 घटाभावादिशब्द एव श्रूयते न त्वभावः पृथग्भावेन प्रतीयते । 12 गतानामनुगतिर्यस्य सः, तस्य भावस्तत्ता, तया। 13 बसः । (दि० प्र०) 14 विकल्पो ज्ञानम्। 15 आदिपदेन गुणकर्मादयः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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