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________________ -११४ ] [ कारिका १० रूपं पश्यामीत्यादिव्यवहारेण गुणस्य स्वतन्त्रस्यापि प्रतीतेर्न सर्वदा 2 भावविशेषणत्वमस्येति 'चेत्तर्ह्यभावस्तत्त्वमित्यभावस्यापि स्वतन्त्रत्वप्रतीतेः शश्वद्भावविशेषणत्वं मा 'सिधत् । 'सामर्थ्यात्त' द्विशेष्यस्य' द्रव्यादेः संप्रत्ययात्सदा भावविशेषणमेवाभाव इति चेत्तथैव " गुणादिः सन्ततं भावविशेषणमस्तु, " तद्विशेष्यस्य द्रव्यस्य सामर्थ्याद्गम्यमानत्वात् । 12 किञ्च प्रागभावः सादिः सान्तः परिकल्प्यते सादिरनन्तो वानादिरनन्तो वानादिः सान्तो वा ? प्रथमे विकल्पे अष्टसहस्री व्यभिचार दोष आता है क्योंकि वे गुण सर्वथा भाव - पदार्थ के विशेषण होकर भी अभाव ज्ञान को विषय करने वाले नहीं हैं, सद्भावरूप ही हैं जैसे जीव का ज्ञान गुण और पुद्गल के रूप, रसादि गुण । इस पर नैयायिक ने झट से कह दिया कि हमारे यहाँ गुण पदार्थ के विशेषण नहीं हैं किन्तु स्वयं ही पदार्थ हैं अर्थात् नैयायिक ने ६ पदार्थ माने हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय और विशेष । एवं सभी को सर्वथा पृथक्-पृथक् ही माना है उनके यहाँ जीव द्रव्य से ज्ञान गुण, अग्नि से उष्णगुण सर्वथा पृथक् ही है, समवाय सम्बन्ध से उस द्रव्य में गुण का सम्बन्ध होता है इत्यादि । तथा च दूसरी बात यह है कि हम आपसे यह प्रश्न करते हैं कि आप प्रागभाव को सादि सांत मानते हैं या सादि अनन्त अथवा अनादि अनन्त या अनादि सांत, इन चारों विकल्पों में से कौन सा विकल्प स्वीकार करते हैं ? यदि पहला विकल्प स्वीकार करो कि प्रागभाव सादि सांतरूप है, तब तो प्रागभाव के पहले भी घट की उपलब्धि का प्रसङ्ग आ जावेगा क्योंकि उस घट के विरोधी प्रागभाव का वहाँ पर अभाव है अर्थात् प्रागभाव के पूर्व प्रागभाव का सद्भाव नहीं है क्योंकि वह सादि हैं। यानी घट का विरोधक प्रागभाव था, वह अपने अस्तित्व से पहले है नहीं अतः जैसे प्रागभाव का अभाव होने पर घट उत्पन्न होता है वैसे ही प्रागभाव के न होने पर भी उसका अभाव ही है पुनः पहले भी घट उत्पन्न हो जावेगा । प्रागभाव सादि अनन्तरूप है ऐसा दूसरा विकल्प स्वीकार करने पर प्रागभाव के काल में घट की अनुपलब्धि का प्रसङ्ग प्राप्त होगा क्योंकि प्रागभाव की उत्पत्ति के अनन्तर वह अविनाशी होने से अनन्तरूप है । अर्थात् जब घट का प्रागभाव उत्पन्न हो जाता है तब उसके बाद भी घट की उत्पत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि प्रागभाव का विनाश हो तब घटरूप कार्य की उत्पत्ति होवे परन्तु प्रागभाव तो अनन्त - अविनाशी है । 1 आह योग: हे स्याद्वादिन् ! मम हेतोर्गुणादिना व्यभिचारो यदुच्यते भवता तन्न । कथं नेत्याह । यदा गुणगुणिनोरुभयोर्विवक्षा क्रियते तदा गुणादिर्भावविशेषणं न सर्वदा भावविशेषणं कुतः रूपं पश्यामीत्यादिव्यवहारे गुणः स्वाधीनः प्रतीयते यतः । ( दि० प्र० ) 2 गुणादेः । 3 स्याद्वादी । ( दि० प्र०) 4 घटादिविशेष्योच्चारणरहितत्वेन । 5 मा भूत् । (ब्या० प्र०) 6 अभावस्तत्त्वम् । कस्य ? द्रव्यस्येति सामर्थ्यात् । 7 योग: । ( दि० प्र० ) 8 अभावः । ( दि० प्र० ) 9 चार्वाकः । 10 स्याद्वादी । ( दि० प्र०) 11 गुणादिविशेष्यस्य । कस्य गुणादिरिति प्रश्ने द्रव्यस्येति सामर्थ्याद्गम्यत्वात् । 12 दूषणान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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