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________________ ६४ ] अष्टसहस्री [ कारिका [ जैनाचार्या जगन्नानात्वं साधयति । ] ____ मा भूनिरुपाख्यस्याभावस्य प्रत्यक्षतोऽन्यतो वा प्रमाणात्प्रतिपत्तिस्तथापि न सत्ताद्वैतस्य सिद्धिः, वस्तुनानात्वस्यैव ततः1 परिच्छित्ते रित्य परस्तस्यापि वस्तुनो नानात्वं 'बुध्द्यादिकार्यनानात्वात्प्रतीयेत' *, नान्यथा, अतिप्रसङ्गात् । तदपि व्यभिचार्येव, 10विपक्षेपि भावात् । तथा1 हि स्वभावाभेदेपि विविधकर्मता दृष्टा युगपदेकार्थोपनिबद्धदृष्टिविषयक्षणवत्" * । न ह्येकत्र नर्तक्यादिक्षणे युगपदुपनिबद्धदृष्टीनां प्रेक्षकजनानां विविधं 'कर्म [ जैनाचार्य जगत् को नानारूप सिद्ध कर रहे हैं। ] जैन-तुच्छाभावरूप अभाव की प्रतिपत्ति प्रत्यक्ष प्रमाण अथवा अन्य प्रमाण से मत होवे फिर भी आपके सत्ताद्वैत-ब्रह्माद्वैत की सिद्धि तो नहीं हो सकती है क्योंकि उन प्रमाणों से वस्तु में नानापने का ही ज्ञान होता है । "और वस्तु में नानापना बुद्धि आदि कार्य में नानापना होने से प्रतीति में आ वह प्रतीति अन्यथा भी नहीं है, नहीं तो अतिप्रसंग दोष आ जावेगा। अर्थात् बुद्धि आदि कार्य में नानापना के बिना भी नानापना सिद्ध होने पर लोक में एकरूप ही कुछ भी नहीं रहेगा। अद्वैतवादी-यह नानात्व हेतु व्यभिचारी ही है क्योंकि विपक्ष-एकत्व में भी उसका सद्भाव है। तथाहि "स्वभाव से अभेद होने पर भी विविध कर्मता-अनेक कार्य देखे जाते हैं जैसे कि युगपत् एक पदार्थ में लगी हुई दृष्टि के विषयभूतक्षण।" एक ही नर्तकी आदि क्षण में युगपत् लगी है दृष्टि जिनकी ऐसे प्रेक्षक जनों के अनेक प्रकार के कार्य, बुद्धि-ज्ञान, व्यपदेश, सुख आदि कार्य असिद्ध नहीं हैं कि जिससे उसके स्वभाव में अभेद होने पर भी विविध कार्यपना न होवे । अर्थात्-नृत्य करने वाली एक है और युगपत् देखने वाले अनेक हैं अतः अनेकों को उस नृत्य का ज्ञान एवं उसमें सुखादि का अनुभव हो रहा है। उसी प्रकार से वस्तु अभेदरूप एक है फिर भी बुद्धि में भी अनेक प्रतिभास होने से अनेकपने का आभास हो रहा है । वस्तुतः वस्तु एक सत्तामात्र परमब्रह्म स्वरूप ही है। 1 नानात्वस्यैव न तत्परिच्छित्तरित्यपर इति वा पाठः । (दि० प्र०) 2 प्रमाणात् । (दि० प्र०) 3 सत्ताद्वैतवादी वदति । इति पूर्वोक्तप्रकारेणापरः वस्तुनानात्ववादी कश्चित्कथयति तस्यापि प्रतिवादिनः वस्तुनो नानात्वं बुद्धचादिकार्यनानात्वान्निश्चीयते चेत्तदाऽतिप्रसंग: । पुनराह सत्ताद्वैतवादी तत् बुद्धयादिकार्यनानात्वं व्यभिचारि । कुत: विपक्षेपि वस्तुनः एकत्वेऽपि तस्य हेतोः संभवात् । (दि० प्र०) 4 जैनादिः । 5 इदं दूषणम् । (दि० प्र०) 6 लक्षण । (दि० प्र०) 7 बुद्धयादयश्च ताः कार्यरूपास्तेषाम् । 8 बुध्द्यादिकार्यनानात्वमन्तरेणापि वस्तुनानात्वसिद्धौ लोके एकमेव किञ्चिन्न स्यात् । 9 समर्थनम्। 10 एकत्वे । 11 हेतोर्व्यभिचारित्वं स्पष्टयन्ति श्रीमदकलंकदेवाः । (दि० प्र०) 12 नानाकार्यता। 13 युगपदेकार्थोपनिबद्धदृष्टीनां पुरुषाणां संबन्धाविषयलक्षण एव नानाकार्यकारी यथा। (दि० प्र०) 14 कार्य । (दि० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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