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________________ ६८ ] अष्टसहस्री [ कारिका ८ तत्सामर्थ्यापेक्षिणः फलस्य कालनियमः किन्न कल्पयितुं शक्यः ? शाश्वतिकस्य प्रतिकार्य सामर्थ्यभेदादनित्यत्वप्रसंग इति चेन्न, 'क्षणिकस्याप्येकस्य युगपदनेककार्यकारिणः प्रतिकार्य सामर्थ्यभेदादनेकत्वप्रसङ्गात् । 'क्षणवत्तिन एकस्मात्कारणस्वभावमभेदयतां' विचित्र1°कर्मणामुत्पत्तौ कूटस्थेपि12 किं न स्यात् क्रमशः कार्योत्पत्तिः ? * "तस्यापि तथाविधकस्वभावत्वात् । बौद्ध-हमारे मत में जिस प्रकार से जो कार्य जब जहाँ पर जिस प्रकार से उत्पन्न होना चाहता है तब वह क्षणिक कारण उसी समय वहाँ पर उसी प्रकार से उस कार्य को उत्पन्न कर देता है क्योंकि उस क्षणिकरूप कारण में इस प्रकार की सामर्थ्य पाई जाती है अतएव उस क्षणिक कारणरूप सामर्थ्य की अपेक्षा रखने वाले कार्य में स्वकाल-अपने समय का नियम सिद्ध ही है। जैन-यदि आपकी ऐसी मान्यता है तब तो इसीप्रकार से नित्यपक्ष में भी जिस समय जहाँ जिसप्रकार से जो कार्य उत्पन्न होने का इच्छुक है वह नित्य कारण भी उसी समय वहीं पर वैसे ही कार्य को उत्पन्न कर देता है क्योंकि उस नित्य कारण में वैसी ही सामर्थ्य का योग है अतः उस नित्यकारणरूप सामर्थ्य की अपेक्षा करने वाले कार्य में काल का नियम हो सकता है ऐसी कल्पना नित्य में शक्य क्यों नहीं है ? अर्थात् नित्य पक्ष में भी हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं कोई बाधा नहीं है। बौद्ध-जो शाश्वतिक नित्य है उसमें प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति के लिये सामर्थ्य भेद मान लेने से अनित्यत्व का प्रसंग आ जावेगा। अर्थात् नित्य पक्ष में सभी पदार्थ चाहे कारणरूप हों, चाहे कार्यरूप हों नित्य ही हैं जैसे कि आत्मा आकाश आदि पदार्थ नित्य हैं पुनः नित्यकारण नित्य एक है अनेक कार्यों की उत्पत्ति में उस कारण में सामर्थ्य भेद मानना ही पड़ेगा। जैन-ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि क्षणिक भी एक कारण युगपत् उपादान और सहकारीरूप से अनेक कार्य को करने वाला है अतः उसमें भी प्रत्येक कार्य के प्रति सामर्थ्य भेद होने से अनेकपने का प्रसङ्ग प्राप्त हो जावेगा क्योंकि "क्षणवर्ती एक कारण से कारणस्वभाव में भेद न मानते हुये भी विचित्र अनेक कार्यों की उत्पत्ति तो आप मान लेते हैं पुनः कूटस्थ नित्य में क्रमशः कार्य को उत्पत्ति क्यों नहीं मानने हैं ?" क्योंकि वह भी उसी प्रकार के एक स्वभाववाला है । अर्थात् नित्यकारण भी क्रमभावी अनेक कार्य को उत्पन्न करने के स्वभाववाला है। 1 कारण । (दि० प्र०) 2 कार्यस्य । (दि० प्र०) 3 सौगतैः । (दि० प्र०) 4 आह सौगतः नित्यस्य कार्य कार्य प्रतिसामर्थ्य भिद्यते तस्मात्तस्यानित्यत्वं प्रसजतीति चेत् । (दि० प्र०) कूटस्थनित्यस्य । (ब्या० प्र०) 5 कारणस्य । 6 उपादानत्वं सहकारित्वमिति द्वयरूपेण। 7 (हे सौगत) क्षणिकात् । 8 कारणात् । 9 कारणभेदमकुर्वताम् । 10 अनेककार्याणाम् । 11 युगपत् । (ब्या० प्र०) 12 नित्ये । (ब्या० प्र०) 13 कूटस्थादपि कारणादेकस्मात्कारणस्वभावमभेदयतामित्यादि योज्यम् । 14 नित्यस्य । (दि० प्र०) 15 नित्यस्यापि क्रमभाव्यनेककार्योत्पादनस्वभावत्वात्, यथा क्षणिकस्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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