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________________ जय पराजय व्यवस्था ] प्रथम परिच्छेद [ ५१ प्रत्यर्थान्तरभूतविशेषण एव कृतकत्वादिति', अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः कृतक इति वचनात् । तथा कृतकत्वात्प्रयत्नानन्तरीयकत्वादित्यादिषु च स्वार्थिकस्य कप्रत्ययस्याभिधानमपि तादृशशब्दप्रसिद्ध्यनुसारिणं' प्रति नातिरिक्तमुच्यते', 'अन्यथाप्रयोगे 'तदपरितोषात् । तथा च यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकं यथा घट इतीयता 'शब्देप्यविगानेन10 सत्त्वप्रतिपत्तावपि संश्च शब्द इति पक्षधर्मप्रदर्शनं नातिरिक्तवचनं, 'तदन्तरेण 12तत्प्रतिपत्तुमशक्तं प्रति तथा वचना13 वाला भाव ही कृतक कहलाता है ऐसा हमारे यहाँ कथन है अतः यह हेतु अधिक नहीं है उसी प्रकार से "कृतकत्वात्" "प्रयत्नानन्तरीयकत्वात्" इत्यादिकों में स्वार्थिक (स्वार्थ में) "क" प्रत्यय का कथन भी उस प्रकार के 'क प्रत्ययांत' शब्द की प्रसिद्धि का अनुसरण करने वाले वादी के प्रति अधिक प्रयोग रूप नहीं है क्योंकि अन्यथा प्रयोग में उन-उन वादियों को संतोष नहीं होगा, अर्थात् किसी को 'सत्त्वात्' इतने मात्र से ही साध्य की सिद्धि होती है। पुनः किसी-किसी को "उत्पत्तिमत्त्वात्" इस हेतु से साध्य की सिद्धि होती है। उन-उन वादियों की साध्य सिद्धि के लिये ही उपर्युक्त हेतुओं का प्रयोग वचनाधिक्य नाम के दोष से दूषित नहीं होता है अतः हमारे यहाँ असाधनाङ्ग नाम का निग्रहस्थान नहीं होता है । तथा च--- ___ “यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकं यथा घट:' जो सत् है वह सभी क्षणिक है जैसे घट। इतने मात्र प्रयोग से शब्दों में अविसंवादरूप से सत्त्व का ज्ञान हो जाने पर भी "संश्च शब्दः" और सत्रूप शब्द है इस प्रकार पक्षधर्म का कथन भी अधिक वचनरूप दोष नहीं है क्योंकि उस प्रयोग के बिना समझाने में जो असमर्थ हैं उनके प्रति उस प्रकार का प्रयोग किया जाता है एवं जो । उस पक्षधर्म प्रयोग के बिना भी समझने में समर्थ हैं उनके प्रति उस पक्षधर्म का प्रयोग नहीं किया है क्य क्योंकि "विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः” विद्वानों के लिये केवल हेतु का प्रयोग करना चाहिये ऐसा कथन पाया जाता है अर्थात् दृष्टांत में साध्य को नहीं समझने वालों के लिये पक्ष और हेतु दोनों का कथन करना चाहिये किन्तु विद्वानों के लिये केवल हेतु का ही प्रयोग करना उचित है। 1 ननु यौगो जैनापेक्षया उत्पत्तिमत्वात् कृतकत्वादिति पृथग्घेतुद्वयं कुतोऽभिधीयते । तयोरेकतराभिधानेपि प्रयोजनसिद्धरविशेषादिति नाशंकनीयम् । तत्प्रसिद्धा तथाभिधाने दोषाभावात्तथाहि जैनस्य तावदुत्पत्तिमत्वमेव प्रसिद्धम् । उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सदिति वचनाद्योगस्य कृतकत्वम् । अपेक्षितपरव्यापारो हि भावः कृतक इति वचनात् । (दि० प्र०) 2 तादृशः कप्रत्ययान्त इत्यर्थः । 3 वादिनम् । 4 नातिरिक्तमिति वाक्यं पूर्वमपि योज्यम् । 5 तत्तद्वादिसाध्यप्रसिद्ध्यभावप्रकारेण । कस्यचित्सत्त्वादित्यनेन साध्यसिद्धिरस्ति कस्यचित्तु उत्पत्तिमत्त्वादित्यनेन साध्यसिद्धिरिति। 6 अन्यथा कप्रत्ययस्यानुच्चारे तादृशशब्दप्रसिद्धयनुसारिवादिनो संतोषात् । (दि० प्र०) 7 तत्तद्वादिनः । 8 प्रयोगेण । 9 मिणि । (ब्या० प्र०) 10 घट इति यथा शब्देपि विनाशेन इति पा० । (दि० प्र०) 11 संश्च शब्द इति पक्षधर्मदर्शनं विना। (दि० प्र०) 12 साध्यम् । (दि० प्र०) 13 तदन्तरेणापि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001549
Book TitleAshtsahastri Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages494
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size11 MB
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