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________________ ४२६ ] अष्टसहस्त्री [ कारिका ६अधिगमोपि 'व्यवसायात्मैव, तदनुत्पत्तौसतोपि दर्शनस्य साध-नान्तरापेक्षया सन्निधानाऽभेदात् सुषुप्तचैतन्यवत् * । सन्निधानं हीन्द्रियार्थसन्निकर्षः । तत्स्वयमप्रमाणमाख्यत् तथागतः', साधनान्तरापेक्षित्वात् तस्यार्थपरिच्छित्तौ। [ बौद्धाभिमतं निर्विकल्पदर्शनमप्रमाणमेव सन्निकर्षवत् ] 'तत एव दर्शनस्याप्रमाणत्वं, सुषुप्तचैतन्यवत् 10स्वयं संशयविपर्यासानध्यवसायाव्यवच्छेदकत्वात् । तद्वयवच्छेदिनो1 निश्चयस्य12 13जननात्प्रमाणं दर्शनमिति चेत् तत एव सन्निकर्षः __ यहाँ कोई कहता है कि-तर्क के समान निर्विकल्प प्रत्यक्ष से भी निर्णय हो जाने पर समारोप नहीं रहेगा। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि निर्विकल्पकज्ञान तो कोई सिद्ध ही नहीं होता कि जिससे समारोप भी हो सके अर्थात् समारोप विरोध की बात तो दूर ही रहने दीजिये किन्तु उस निर्विकल्प में समारोप ही नहीं हो सकता है। पुनः प्रश्न होता है कि वह निर्विकल्पज्ञान क्या चीज है ? क्योंकि वह व्याप्तिज्ञान भी व्यवसायात्मक ही है। (अर्थात् यहाँ व्याप्ति के ज्ञान को अधिगम कहा है वह भी सविकल्पात्मक ही है) उस सविकल्प ज्ञान की उत्पत्ति न होने पर विद्यमान होता हुआ भी दर्शन साधनांतर (सविकल्पज्ञान) की अपेक्षा रखने से सन्निधान-सन्निकर्ष में अभेद रूप हैं सुषप्त चैतन्य के समान* । भावार्थ-निर्विकल्प दर्शन विद्यमान होते हुये भी स्वयं समारोप का व्यवच्छेदक नहीं है अतएव साधनांतर-सविकल्प ज्ञान को अपेक्षा है। उसी प्रकार से सन्निकर्ष भी स्वयं समारोप का व्यवच्छेदक नहीं है किन्तु साधनांतर की अपेक्षा करता है इसलिये सन्निकर्ष से निर्विकल्प में कोई विशेषता नहीं है। जैसे सुषुप्त पुरुष के चैतन्य के स्वयं प्रमाणता नहीं है किन्तु साधनों की अपेक्षा देखी जाती है। सौगत-इंद्रियों से पदार्थ का सम्बन्ध रूप सन्निकर्ष ही सन्निधान कहलाता है। वह सन्निकर्ष स्वयं अप्रमाण है क्योंकि पदार्थों की परिच्छित्ति (ज्ञान) में भिन्न कारणों की अपेक्षा रखता है। [ बौद्ध के द्वारा मान्य निर्विकल्प दर्शन भी प्रामाणिक नहीं है जैसे कि सन्निकर्ष प्रमाण नहीं है ] 1 व्याप्तिज्ञानमधिगमोत्र। सोपि सविकल्पात्मैव । 2 निर्विकल्पकस्य । (ब्या०प्र०) 3 सविकल्पकज्ञानमेवात्रसाधनान्तरम् । 4 ज्ञान । साधनांतरापेक्षया संनिधानाभेदात् यत्संनिधानापेक्षं तत् अधिगमानुत्पत्ति कृद्भवतियथा सुषुप्तचैतन्यं । साधनांतरापेक्षं चेदं तस्मादधिगमानुत्पत्तिकृत् । दि. प्र.। 5 सतोपि दर्शनस्य न समारोपव्यवच्छेदकत्वं स्वयं यत: साधनान्तरं सविकल्पकमपेक्षते । तथा सन्निकर्षोपि न समारोपव्यवच्छेदक: स्वयं किन्तु साधनान्तरमपेक्षते । इति सन्निकर्षान्न विशेषः । 6 यथा सुषप्त चैतन्यस्य न स्वयं प्रामाण्यं साधनान्तरापेक्षित्वात् । 7 अत्राह स्याद्वादी । तर्कतः सम्बन्धस्य निश्चये जाते सति समारोपो विहन्यते अत्राह पर: निर्विकल्पकादपि समारोपो विहन्यते । इत्युक्ते स्याद्वाद्याह । निर्विकल्पकं दर्शनं निश्चयात्मकं न हि तत्राधिगमे यतः कुतः समारोप: स्यान्न कुतोऽपि पर आह । तहि भवन्मतेऽधिगमः किमिति प्रश्ने आह निश्चायकस्वभाव एव । स्याद्वादी अनुमानं रचयति । निर्विकल्पक दर्शनं पक्षः अधिगमानुत्पत्तिकृद् भवतीति साध्योधर्म: जननादेव सन्निकर्षोऽपि सत्यं भवतु दि. प्र.। 8 सौगत: तदिद्रियार्थसन्निकर्षलक्षणं सन्निधानं स्वयं अप्रमाणं कथितवान् । कस्मात् ? साधनांतरमपेक्ष्य तस्य संनिधानस्य अर्थनिश्चय घटनात् । दि. प्र.। 9(जैन:) तर्हि तत एव साधनान्तरापेक्षित्वादेव हे सौगत। 10 दर्शनस्य । 11 निश्चयारोपमनसोविरोधइत्युक्तित: । (ब्या० प्र०) 12 सविकल्पकज्ञानस्य। 13 यत्रव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता। यत्रवनिविकल्पबुद्धि । एनां-सविकल्पबुद्धि इत्यर्थः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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