SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२० । अष्टसहस्री ... [ कारिका ६बद्धयादिवत' * । न हि यथा बुद्धेः शक्तेश्च प्रकर्षे वाण्याः प्रकर्षोऽपकर्षे वाऽपकर्षः प्रतीयते, तथा दोषजातेरपि, तत्प्रकर्षे वाचोपकर्षात् तदपकर्षे एव तत्प्रकर्षात्, 'यतो वक्तुर्दोषजातिरनुमीयेत । 'सत्यपि च रागादिदोषे कस्यचिबुद्धेर्यथार्थव्यवसायित्वादि"गुणस्य सद्भावात्, सत्यवाक्प्रवृत्तेरुपलम्भात्, कस्यचित्तु वीतरागद्वेषस्यापि बुद्धरयथार्थाध्यवसायित्वादिदोषस्य भावे वितथवचनस्य दर्शनाद्विज्ञानगुणदोषाभ्यामेव वाग्वृत्तेर्गुणदोषवत्ता व्यवतिष्ठते, न पुनर्विवक्षातो दोषजातेर्वा । तदुक्तं"विज्ञानगुणदोषाभ्यां वाग्वृत्तेर्गुणदोषता13 । वाञ्छन्तो14 वा न वक्तारः शास्त्राणां मन्दबुद्धयः॥" इति । ततः साधूपादेशि15 16"तत्रष्टं मतं शासनमुपचर्यते' इति । जिस प्रकार से बुद्धि और शक्ति के प्रकर्ष में वाणो का प्रकर्ष अथवा उनके अपकर्ष में भी वाणी का अपकर्ष प्रतीति में आता है उसी प्रकार से दोष जाति के प्रकर्ष में वाणी का प्रकर्ष और अपकर्ष में अपकर्ष प्रतीत नहीं होता है, प्रत्युत दोषों के प्रकर्ष होने पर वचन में अपकर्ष और दोषों की हानि होने पर वचन में प्रकर्ष (वृद्धि की विशेषता) देखा जाता है जिससे कि आप वक्ता में दोषों का अनुमान कर सकें अर्थात् वक्ता में दोषों का अनुमान नहीं कर सकते हैं। मतलब "वचन प्रवृत्ति दोषों का उल्लंघन नहीं करती है-दोष सहित होती है क्योंकि वह वचन प्रवृत्ति है हम लोगों की वचन प्रवृत्तियों के समान" ऐसे अनुमान से आप वक्ता में दोषों की कल्पना नहीं कर सकते हैं क्योंकि दोषों के अभाव में ही वचनों की विशेषता देखी जाती है। रागादि दोष के होने पर भी किसी की बुद्धि में यथार्थ जानना आदि गुणों का सद्भाव होने से सत्यवाक् प्रवृत्ति की उपलब्धि है और किसी राग द्वेष रहित की भी बुद्धि में अयथार्थ निश्चय करने रूप दोषों का सद्भाव होने पर असत्य वचन देखे जाते हैं इसलिये विज्ञान गुण और दोष के द्वारा ही वचन प्रवृत्ति में गुण और दोषपना व्यवस्थित होता है न पुनः विवक्षा से अथवा दोषों से । कहा भी है श्लोकार्थ-वचन प्रवृत्ति में विज्ञान गुण और दोष के द्वारा ही गुण व दोषपना देखा जाता है क्योंकि शास्त्रों के विषय में मंदबुद्धि रखने वाले जन वक्तृत्व को चाहते हुये भी वक्ता नहीं बन सकते हैं इसलिये ठीक ही कहा है कि भगवान् में इष्ट-मत-शासन शब्द उपचरित रूप से है। 1 (व्यतिरेकी दृष्टान्तः)। 2 करणपाटवस्य । 3 वर्द्धमानसद्भावे वाच: असद्भावो घटते । तस्या असद्भावे वाच: सद्भावो घटते इति हेतुद्वयात् । वक्तुर्दोषजातियत: कुत: अनुमीयेत न कुतोपि। दि. प्र.। 4(तथा दोषजातेरपि प्रकर्षापकर्षयोर्वाक्यप्रकर्षापकों न हीत्यत्र हेतुमाह।) 5 तस्या दोषजातेः। 6 तस्या वाचः। 7 कूत: ? अपितु न कुतोपि । 8 वाक्प्रवृत्तिर्दोष जाति नातिवर्तते वाक् प्रवृत्तित्वात् अस्मदादिवाक्प्रवृत्तिवत् । (ब्या० प्र०) 9 किंच "विज्ञानगुणदोषाभ्यां वाग्वृत्तेर्गुणदोषता" नान्यत इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां समर्थयमान: प्राह । सत्यपिचेति । दि. प्र. । 10 नः । ता। (ब्या० प्र०) 11 आदिशब्देन समारोपव्यवच्छेदादिग्रहणम । 12 भावे इति पा. । (ब्या० प्र०) 13 गुणदोषौ विद्यते यस्याः सा गुणदोषा मत्वर्थे आशीदेरः । (ब्या० प्र०) 14 वक्तृत्वम्। 15 प्रागुपादिष्टम् । 16 भगवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy