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________________ [ܘܘܐ अष्टसहस्री [ कारिका ६ ततः पूर्वोपात्तशरीरेण सहावतिष्ठमानात्तत्त्वज्ञानादाप्तस्योपदेशो युक्त इति मतं तदा हेतुः सिद्धोभ्युपगतस्तावत् । स च परनिःश्रेयसाऽकारणत्वं तत्त्वज्ञानस्य साधयत्येव, भाविशरीरस्येवोपात्तशरीरस्यापि निवृत्तेः परनिःश्रेयसत्वात्', 'तस्य च तद्भावेप्यभावात । 'फलोपभोगकृतोपात्तकर्मक्षयापेक्षं तत्त्वज्ञानं परनिःश्रेयसकारणमित्यप्यनालोचिताभिधानं फलोपभोगस्यौपक्रमिकानौपक्रमिकविकल्पानतिक्रमात् । तस्यौ पक्रमिकत्वे कुतस्तदु पक्रमोन्यत्र तपोतिशयात् । इति तत्त्वज्ञानतपोतिशयहेतुकं परनिःश्रेयसमायातम् । 1'समाधिविशेषादुपात्ता सांख्य-नये शरीर की उत्पत्ति का न होना ही मोक्ष है न कि ग्रहण किये हुये शरीर का भी छूट जाना। क्योंकि मोक्ष साक्षात् सकल पदार्थों के ज्ञान रूप कारण से है न कि गृहीत शरीर की निवृत्ति (अभाव) होने से । अर्थात् गृहीत शरीर का अभाव होने में सकल पदार्थों का तत्त्वज्ञान कारण नहीं है, प्रत्युत गहीत शरीर का अभाव फल के उपभोग से होता है । इसलिये पूर्वोपात्त शरीर के साथ अवस्थान होने से तत्त्वज्ञान से आप्त का उपदेश युक्त ही है। जैन-तब तो हमारा हेतु सिद्ध ही है क्योंकि ज्ञान की प्रकर्ष पर्यंत अवस्था (केवलज्ञान) के हो जाने पर भी आत्मा का शरीर के साथ अवस्थान पाया जाता है। इसलिये परंनिःश्रेयस (मोक्ष) के लिये तत्त्वज्ञान साक्षात् कारण नहीं है यह बात सिद्ध हो जाती है क्योंकि भावीशरीर के समान उपात्त गृहीत शरीर का भी अभाव होने से ही “पर निःश्रेयस" होता है अतः तत्त्वज्ञान पूर्ण हो जाने पर भी मोक्ष का अभाव देखा जाता है। सांख्य-शभ अशभ रूप कर्म फल का उपभोग (अनुभव) कर लेने के बाद उपात्त कर्मों का क्षय हो जाने से जो तत्त्वज्ञान होता है वह मोक्ष का कारण है। जैन-आपका यह कथन भी विचार शून्य ही है । फलोपभोग के दो भेद हैं—१. औपक्रमिक २. अनौपक्रमिक और फलोपभोग इन दोनों भेदों का उल्लंघन नहीं करता है। यदि फल का अनुभवन औपक्रमिक-अविपाक निर्जरा से होता है तो तपोतिशय को छोड़कर वह उपक्रम रूप अविपाक निर्जरा 1 मानस्य तत्त्व इति पा. दि. प्र.। 2 सांख्यस्य । 3 अस्माभिः स्याद्वादिभिरङ्गीकृतः प्रकर्षपर्यन्तावस्थायामप्यात्मनि ज्ञानस्य शरीरेण सहावस्थानादित्ययं हेतुः। 4 यथा भाविशरोरस्याभावः परनिःश्रेयसत्वं घटते । तथा गृहीतशरीरस्याप्यभावः । कस्मात्तस्य परनिःश्रेयसस्य तद्भावे तत्त्वज्ञान सद्भावेऽपि सति असंभवात् । दि. प्र.। 5 परनिःश्रेयसत्वस्य । 6 तत्त्वज्ञाजभावेपि। 7 (सांख्यः) फलानां शुभाशुभानामुपभोगोऽनुभवनं तेन कृतो योसावुपात्तकर्मणां क्षयस्तस्य अपेक्षा यस्य तत्तथोक्तम् । 8 फलानां शुभाशुभानामुपभोगोऽनुभवनं तेन क्षयो योऽसावुपात्तकर्मणां क्षयस्तस्यापेक्षा यस्य तत्तथोक्तं । (ब्या०प्र०) 9 जैनः प्राह । 10 अविपाक निर्जरा। सविपाकनिर्जरा । (ब्या०प्र०) 11 अनौपक्रमिकफलोपभोगस्य परनिःश्रेयसकारणत्वेन परैरनभ्युपगमादेवात्र तस्य परिहारो नोच्यते-दि. प्र. । 12 फलोपभोगस्य। 13 तस्य फलोपभोगस्याधिकतपसः सकाशात् अन्यत्रोपक्रमः कुतः न कुतोऽपि । एतावता तपसा यो विपाकः स सकाम इत्यायातं-दि. प्र.। 14 विना। 15 (तपोतिशयस्याकामनिर्जराकारणत्वमुक्तम्)। 16 न तु तत्त्वज्ञानमात्रहेतुकम् । 17 तत्वज्ञानतपोतिशयहेतुकत्वाभावेपि मोक्षस्य स्थिरीभूततत्त्वज्ञानमेव हेतरित्यदोष इति सांख्यः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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