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________________ [ कारिका ३ २४६ ] अष्टसहस्री दिनो' नाऽनाविलज्ञाना' अविशिष्टवागक्षबुद्धीच्छादिमत्त्वादविशिष्टपुरुषत्वादेर्वा रथ्यापुरुषवत् । इति नैतेषामाप्तता । 'तत्प्रतिषेधवादिनां पुनः स्याद्वादिनां नातः कश्चिदविशिष्टवागादिमानविशिष्टपुरुषो वा', तस्य युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वेनाभ्युपगतत्वात्, 'करणक्रम - व्यवधाना द्यतिवर्तिबुद्धित्वात् इच्छारहितत्वाद्विशुद्ध"पुरुषातिशयत्वादिति । यथा वागादिकं निर्दोषज्ञाननिराकरणसमर्थं न तथा स्याद्वादन्यायवेदिभिरभिष्टूयमाने 13भगवतीति परमगहनमेतत्, 14अयुक्तिशास्त्रविदामगोचरत्वादाकलङ्कधिषणाधिगम्यत्वात् । इत्थं सिद्ध उन अविशिष्ट वचन आदि का प्रतिषेध करने वाले स्याद्वादियों में इस प्रकार से कोई सर्वज्ञ अविशिष्ट- सामान्य वचनादिमान् अथवा अविशिष्ट-सामान्य पुरुष नहीं है क्योंकि वे सर्वज्ञ युक्ति और शास्त्र से अविरोधी वचन वाले हैं ऐसा स्वीकार किया गया है। वे इन्द्रियों के क्रम व्यवधान से रहित ज्ञान वाले हैं, इच्छा से रहित हैं एवं विशद्ध अतिशयशाली परुष हैं। जिस प्रकार से सुगतादिकों के वचन आदि निर्दोष ज्ञान के निरकरण में समर्थ हैं उस प्रकार के वचन आदि स्याद्वादन्यायवेदी हम जैनियों के द्वारा स्तुति किये जाने वाले भगवान् में नहीं हैं यह परम गहन-दुष्कर ही है। भावार्थ-मीमांसक कहता है कि "कोई भी मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हो सकता है क्योंकि वह वक्ता है, इन्द्रियज्ञान से सहित है, इच्छावान् है, एवं पुरुष है । जैसे कि हम लोग वक्ता हैं, इन्द्रियज्ञान सहित हैं, इच्छावान् हैं एवं पुरुष हैं। इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि ये वक्तृत्व आदि जैसे हम और आप में पाये जाते हैं वैसे ही साधारण रूप से हम जैनों के द्वारा मान्य सर्वज्ञ में नहीं पाये जाते हैं। हमारे सर्वज्ञ भगवान् के जो वचन आदि व्यापार हैं वे साधारण लोगों में असंभवी-विशेष रूप ही हैं। सर्वज्ञ भगवान् के वचन युक्ति और आगम से अविरोधी हैं, दिव्यध्वनि से उत्पन्न द्वादशांग वाणी रूप हैं। यद्यपि सर्वज्ञ भगवान् की भाषा अनक्षरी है फिर भी श्रोताओं के कान में प्रविष्ट होकर सातसौ अठारह भाषा रूप अथवा संख्यातों भाषा रूप परिणत हो जाती है । ज्ञानावरण का पूर्णतया नाश हुये बिना साधारण छद्मस्थ जीवों में ऐसे वचन असम्भव ही हैं। सर्वज्ञ भगवान् का ज्ञान इंद्रियों से उत्पन्न हुआ क्षयोपशम ज्ञान रूप नहीं है किन्तु अतीन्द्रिय ज्ञान है । अतः इन्द्रियों की अपेक्षा न होने से वह केवलज्ञान क्रम की अपेक्षा नहीं रखता है युगपत् ही 1 नित्यादि । (ब्या० प्र०) 2 निरावरणज्ञानाः। 3 अविशिष्टवागादिप्रतिषेधवादिनाम् । 4 नाप्तः इति पा० । (ब्या० प्र०) 5 कुतः । (ब्या० प्र०) 6 अविशिष्टवाक्त्वं निराकृतमनेन । 7 अक्षबुद्धिनिराकरणमनेन। 8 आदिना देशकालद्रव्यादिव्यवधानग्रहः। 9 व्यवधानातिवति इति पा० । द्वंद्वः । द्रव्यादिना । (ब्या० प्र०) 10 इच्छावत्त्वं निराकृतमनेन । 11 अविशिष्टपुरुषत्वमनेन निराकृतम् । 12 सुगतादिषु । 13 वागादिकं निर्दोषज्ञाननिराकरणसमर्थ । (ब्या० प्र०) 14 युक्तिया॑यः । शास्त्रमागमः। 15 निष्कलङ्कबुद्धिः, पक्षेऽकलङ्कदेवानां बुद्धिः। 16 तीर्थच्दछेसंप्रदायानां सर्वेषामाप्तता नास्ति यतः । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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