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________________ प्रथम परिच्छेद तत्त्वोपप्लववाद ] [ २१३ लोकवृत्तस्य प्रसिद्धत्वे तथानुवादस्य सत्यत्वं, तत्सत्यत्वाच्च तथैव लोकवृत्तस्य प्रसिद्धत्वमितीतरेतराश्रयत्वमप्युभयोः' समानम् । तथा लोकवृत्तान्तरात्तस्य' प्रसिद्धौ पुनरनवस्था दुर्निवारैव । इति न प्रवृत्तिसामर्थ्यात्संविदः प्रामाण्यनिश्चयानुवादो युक्तः । ततो न प्रवृत्तिसामर्थ्येन प्रामाण्यं व्यवतिष्ठते । का प्रसंग आ जावेगा। नैयायिक-प्रमाणों की प्रमाणता स्वतः मानना मिथ्या है। शून्यवादी-आप नैयायिक की मान्यता (प्रमाणों की प्रमाणता पर से मानना) भी मिथ्या क्यों नहीं हो जावे ? नैयायिक-नहीं ! क्योंकि पर से ही प्रमाण में प्रमाणता आती है यह लोक व्यवहार प्रसिद्ध है। शून्यवादी-तब तो मीमांसक भी इसी प्रकार से कह सकता है कि स्वतः ही प्रमाण की प्रमाणता प्रसिद्ध है। इस प्रकार से आप दोनों-नैयायिक और मीमांसक समान ही हैं। दोनों ही अपनी-अपनी बात को सत्य कह रहे हैं। पुनः पर से या स्वतः प्रमाण की प्रमाणता रूप से प्रमाणप्रमेय रूप लोक व्यवहार के प्रसिद्ध हो जाने पर उसका वैसा ही कथन करना सत्य होगा और उसका वैसा ही कथन करना सत्य सिद्ध होने से उस प्रकार का प्रमाण-प्रमेय रूप लोक व्यवहार सिद्ध होगा। इस प्रकार से इतरेतराश्रय दोष तो नैयायिक और मीमांसक दोनों के यहाँ समान ही है। यदि आप दूसरा पक्ष लेवो कि प्रमाण-प्रमेय रूप लोक व्यवहार पर से निर्विवाद प्रसिद्ध है तब तो यह लोक व्यवहार अन्य लोक व्यवहार से सिद्ध होगा पुनः उसका कथन अन्य लोक व्यवहार से, इस प्रकार अनवस्था दुनिवार ही है। इसलिये प्रवृत्ति की सामर्थ्य से ज्ञान में प्रमाणता का निश्चय सिद्ध नहीं हो सकता अतः प्रवृत्ति सामर्थ्य से प्रमाणता की व्यवस्था कथमपि शक्य नहीं है। भावार्थ-नैयायिक और वैशेषिक ज्ञान की प्रमाणता को प्रवृत्ति की सामर्थ्य से मानते हैं । उनका कहना है कि "प्रमाणतोऽर्थप्रतीतौ प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत्प्रमाणं" अर्थात् ज्ञान से जलादि अर्थ को जानकर उसमें स्नान, पान, अवगाहन आदि रूप से प्रवृत्ति हो जाने की सामर्थ्य से प्रमाण ज्ञान अर्थवान्-प्रयोजनभूत प्रमाणीक है, किन्तु यहाँ तत्त्वोपप्लववादी उसकी इस मान्यता में अनेक दोष दिखाता है। नैयायिक का अभिप्राय है कि तालाब में जल है' इस प्रकार से ज्ञान हआ अब यह ज्ञान सच्चा है या नहीं, इसका निर्णय कौन देवे ? उस तालाब के जल में प्रवृत्ति की सामर्थ्य है या नहीं अर्थात् स्नान पानादि क्रियायें हो सकती हैं या नहीं ? यदि हो सकती हैं तब तो उस प्रवृत्ति की सामर्थ्य से ही वह जलज्ञान सच्चा सिद्ध हुआ है अन्यथा नहीं, यदि उस जल में स्नानादि क्रियायें नहीं 1 नैयायिकमीमांसकयोः । (ब्या० प्र०) 2 परतः प्रामाण्यप्रकारेण (द्वितीयविकल्पः) । (ब्या० प्र०) 3 अन्यस्माल्लोकवृत्तात्तस्य । प्रकृतलोकवृत्तस्य । (ब्या० प्र०) 4 अनुवादस्य । (ब्या० प्र०) 5 अनुकथनम् । (ब्या० प्र०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001548
Book TitleAshtsahastri Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1889
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size12 MB
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