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________________ २ कत्तिगेयाणुप्पेक्खा, २७९ प्रस्तावना विरला णिसुणहि तच्च विरला जाणंति तच्चदो तच्चं । विरला भावहि तच्च विरलाणं धारणा हादि ॥ कुमारकी कत्तिगेयाणुपेक्खा अपभ्रंश भाषामें लिखी गई है, अतः वर्तमानकाल तृतीयपुरुषके बहुवचनके रूप 'णिसुणहि' और 'भावहि' उसमें जबरन घुस गये हैं, किन्तु योगसारमें वे ही रूप ठीक हैं । दोनों पद्योंका आशय एक ही है, केवल दोहेको गाथा में परिवर्तित कर दिया है, किन्तु यह किसी लेखककी सूझ नहीं है, बल्कि, कुमारने ही जान या अनजान में, जोइन्दुके दोहेका अनुसरण किया है। कुछ दन्तकथाओंने कुमारके व्यक्तित्वको अन्धकारमें डाल दिया है, और उनका समय अभीतक भी निश्चित नहीं हो सका है । मौखिक परम्पराओंके आधारपर यह कहा जाता है कि विक्रमसंवत्से कोई दो या तीन शताब्दी पहले कुमार हुए हैं, और ऐसा मालूम होता है कि आधुनिक कुछ विद्वानोंपर इस परम्पराका प्रभाव भी है । कुमारकी कत्तिगेयाणुपेक्खाकी केवल एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध है, जो १५५६ ई० में शुभचन्द्रने बनाई थी । किन्हीं प्राचीन टीकाओंमें कुमारका उल्लेख भी नहीं मिलता । कुमारने बारह अनुप्रेक्षाओंकी गणनाका क्रम तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार रक्खा है, जो वट्टकेर, शिवार्य और कुन्दकुन्दके क्रमसे थोड़ा भिन्न है । ये सब बातें कुमारकी परम्परागत प्राचीनता के विरुद्ध जाती हैं । यद्यपि कत्तिगेयाणुप्पेक्खाका कोई शुद्ध संस्करण प्रकाशित नहीं हुआ है, किन्तु गाथाओं के देखने से पता चलता है कि उनकी भाषा प्रवचनसारके जितनी प्राचीन नहीं है । २५ वीं गाथा 'क्षेत्रपाल' शब्दसे अनुमान होता है कि कुमार दक्षिणप्रान्तके निवासी थे, जहाँ क्षेत्रपालकी पूजाका बहुत प्रचार रहा है । दक्षिण में कुमारसेन नामके कई साधु हुए हैं । मुलगुन्द मंदिरके शिलालेखमें, जो ९०३ ई० से पहले का है, एक कुमारसेनका उल्लेख है; तथा ११४५ ई० बोगदीके शिलालेख में एक कुमारस्वामीका नाम आता है । किन्तु एकता के लिये केवल नामकी समता ही पर्याप्त नहीं है । अतः इन बातोंको दृष्टिमें रखते हुए मैं कुमारका कोई निश्चित समय ठहराना नहीं चाहता, किन्तु केवल इतना ही कहना है कि परम्पराके आधारपर कल्पित कुमारकी प्राचीनता प्रमाणित नहीं होती तथा उसके विरुद्ध अनेक जोरदार युक्तियाँ मोजद हैं । मेरा मत है कि जोइन्दु और कुमारमेंसे जोइन्दु प्राचीन हैं । ९ प्राकृतलक्षणके कर्ता चण्डने अपने सूत्र " यथा तथा अनयोः स्थाने" के उदाहरणमें निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया है Jain Education International कालु लहेविणु जोइया जिम जिम तिम तिम दंसणु लहइ जो नियमें मोहु गलेइ । अप्पु मुणेइ ॥ १२७ यह परमात्मप्रकाशके प्रथम अधिकारका ८५ वां दोहा है । दोनोंमें केवल इतना ही अन्तर है कि परमात्मप्रकाशमें 'जिम' के स्थानपर 'जिम' 'तिम' के स्थानपर 'तिमु' तथा 'जो' के स्थानपर 'जिउ ' पाठ है, किन्तु चण्डका प्राकृत व्याकरण अपनी असली हालत में नहीं है । यह एक सुव्यवस्थित पुस्तक न होकर एक अर्धव्यवस्थित नोटबुकके जैसा है' । १८८० ई० में जब प्राकृतका अध्ययन अपनी बाल्यावस्थामें था, और अपभ्रंश - साहित्यसे लोग अपरिचित थे, हॅन्लें (Hoernle ) ने इसका सम्पादन किया था । उनके पास साधनों की कमी थी, और केवल पालीभाषा तथा अशोकके शिलालेखोंपर दृष्टि रखकर उसका व्यवस्थित संस्करण सम्पादित कर सकना कठिन था । हॅलेंने उसके सम्पादनमें बड़ी कड़ाईसे काम लिया है, १ दलाल और गुणे लिखित 'भविसयत्तकहा' की प्रस्तावना, पृ० ६२ । आदि । २ हर्ले की प्रस्तावना, पृ० १,२०, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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