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________________ प्रस्तावना ११९ अपभ्रंश भाषाकी मोहकता - अपभ्रंश पद्य कोमलता और माधुर्यं से परिपूर्ण होते | अपभ्रंश में नये नये छन्दोंकी कमी नहीं है, किन्तु ये छन्द मात्रा छन्द होते हैं, और सरलतासे गाये जा सकते हैं । अतः अधिक नहीं तो छठी शताब्दी में, अपभ्रंशका जनसाधारणकी कविताका माध्यम होना कोई अचरजकी बात नहीं है । यह कहा जाता है कि वलभीके गृहतेनने, ई०५५९ से ५६९ तकके जिनके स्मारकलेख पाये जाते हैं, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में पद्य रचना की थी । उद्योतनसूरि ( ७७८ ई० ) ने भी अपभ्रंशका बहुत कुछ गुणगान किया है, और भाषाओंके सम्बन्ध में उनकी आलोचना एक महत्त्वको वस्तु है । उनके विचार से लम्बे समास, अव्यय, उपसर्ग, विभक्ति, वचन और लिङ्गकाठिन्यसे पूर्ण संस्कृतभाषा दुर्जनके हृदयकी तरह दुरूह है, किन्तु प्राकृत, सज्जनोंके वचनकी तरह आनन्ददायक है । यह अनेक कलाओंके विवेचनरूपी तरंगों से पूर्णं सांसारिक अनुभवों का समुद्र है, जो विद्वानोंसे मथन किये जानेपर टपकने वाली अमृत की बूँदोंसे भरा है । यह ( अपभ्रंश ) शुद्ध और मिश्रित संस्कृत तथा प्राकृत शब्दोंका समानुपातिक एवं आनन्ददायक सम्मिश्रण है । यह कोमल हो या कठोर, बरसाती पहाड़ी नदियोंकी तरह इसका प्रवाह बेरोक है, और प्रणय-कुपितानायिकाके वचनों की तरह यह शीघ्र ही मनुष्य के मनको वशमें कर लेती है । उद्योतनसूरि स्वयं उच्चकोटिके ग्रन्थकार थे, उन्होंने जटिलाचार्य, रविषेण आदि संस्कृतकवियोंकी बड़ी प्रशंसा की है, अपभ्रंश भाषाके प्रति उनके ये उद्गार स्पष्ट बतलाते हैं कि ईसाको आठवीं शताब्दीतक वह पद्य रचनाका एक आकर्षकमाध्यम समझी जाती थी । परमात्मप्रकाशके ऋणी हेमचंद्र- - उपलब्ध प्राकृत व्याकरणोंमें, हेमचन्द्रके व्याकरणमें अपभ्रंशका पूरा विवेचन मिलता है। उनके विवेचनकी विशेषता यह है कि वे अपने नियमोंके उदाहरण में अनेक पद्य उद्धृत करते हैं। बहुत समयतक उनके द्वारा उद्धृत पद्योंके स्थलोंका पता नहीं लग सका था। डॉ० पिशलका कहना था कि सतसई जैसी पद्य संग्रहसे वे उद्धत किये गये हैं । किन्तु पद्योंको भाषा और विचारोंमें अन्तर होनेसे यह निश्चित है कि वे किसी एक ही स्थानसे नहीं लिये गये हैं। मैंने यह बतलाया था कि हेमचन्द्रने परमात्मप्रकाशसे भी कुछ पद्य लिये हैं । वे पद्य निम्न प्रकार हैं । १. सूत्र ४-३८९ के उदाहरण में संता भोग जु परिहरइ तसु कंतहो बलि कीसु । तसु दइवेण वि मुंडियउँ जसु खल्लिहडउँ सीसु ॥ परमात्मप्रकाश में यह पद्य ( २-१३९ ) इस प्रकार हैं संता विसय जु परिहरइ चलि क्रिज्जउ हउँ तासु । सो दइवेण जि मुंडियउ सीसु खडिल्लउ जासु ॥ यदि सूत्र और उसकी व्याख्याको देखा जावे तो 'किजजउ' के स्थान में 'किस' का परिवर्तन समझमें ठीक ठीक आ जाता है । क्योंकि 'किज्जउँ' एक वैकल्पिक रूप है, और उसका उदाहरण दिया गया है“बलि किज्जउँ सुअणस्सु ।" २. सूत्र ४-४२७ में - भिदि नायगु वसि करहु जसु अघिन्नइँ अन्नई । मूलि विठ्ठइ तुंबिणिहे अवर्से सुक्कहिं पण्णइ ॥ कुछ भेदोंके होते हुए भी, इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह दोहा परमात्मप्रकाशके २ - १४० ही रूपान्तर है, जो इस प्रकार है पंचहँ णायकु वसु करहु जेण होंति वसि अण्ण । मूल विणट्ठह तरुवरहँ अवसइँ सुक्कहिँ पण इस दोहे में कुछ परिवर्तन तो सूत्र के नियमोंके उदाहरण देनेके लिये लिये गये हैं । तथा परमात्मप्रकाशमें इन दोनों दोहोंकी क्रमागत संख्या भी स्खलित नहीं है, और यदि इससे कोई नतीजा निकालना संभव { fl वह यह है कि हेमचन्द्र परमात्मप्रकाशसे ही इन पद्योंको उद्धृत किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001524
Book TitleParmatmaprakash
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1988
Total Pages182
LanguagePrakrit, Apabhramsha, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Spiritual
File Size13 MB
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