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________________ ५२८ होता है, उसमें रैवताचलमण्डन श्रीअरिष्टनेमि भगवान्को वन्दन करता हूँ । ग्यारहवाँ अधिकार इसी सूत्रके 'चत्तारि अट्ठ दस दो अ' इस पदसे प्रारम्भ होता है, उसमें अष्टापद-पर्वतपर स्थित चौबीस जिन ( प्रतिमा ) को वन्दन करता हूँ और वारहवाँ अधिकार 'वेयावच्चगराणं' पदसे चाल होता है, उसमें सम्यग्दृष्टिदेवोंका स्मरण करता हूँ। देव-वन्दन करनेवालेको ये बारह अधिकार अच्छी तरह समझकर इनके अनुसार वन्दन करनेका लक्ष्य रखना चाहिये। पशगा। इसके पश्चात् योगमुद्रासे बैठकर 'सक्कथय-सृत्त' अर्थात् 'नमो त्थु' णं सूत्रका पाठ बोला जाता है, वह देववन्दन-अधिकारमें श्रीतीर्थङ्कर भगवन्तको अन्तिम वन्दन समझना । फिर 'भगवदादिवन्दन' सूत्रद्वारा विद्यमान श्रीश्रमणसङ्घको तथा 'इच्छकारी समस्त श्रावकोंको वन्दन करूँ' इन शब्दोंसे श्रावकश्राविकाओंको हाथ जोड़कर प्रणाम किया जाता है। ४. इतनी पूर्वविधि करने के बाद प्रतिक्रमणमें मन, वचन और कायासे स्थिर होनेके लिये 'इच्छा० देवसिय पडिक्कमणे ठाउं ?' इन पदोंसे प्रतिक्रमणको स्थापना करनेका आदेश माँगा जाता है। दूसरे शब्दोंमें कहा जाय तो यहाँ प्रतिक्रमणके अनुष्ठानका प्रणिधान किया जाता है; यह आदेश मिलनेपर दाहिना हाथ तथा मस्तक चरवलेपर रखकर, प्रतिक्रमणका बीजरूप 'सव्वस्स वि देवसिअ' सूत्र अर्थात् 'पडिक्कमण-ठवणा सुत्त' बोला जाता है । यहाँ चरवलेपर दाँया हाथ रखते समय तथा मस्तक नीचे झुकाये समय गुरुके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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