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________________ २१ शल्य रहित करनेके लिये, पापकर्मोंका सर्वथा नाश करनेके लिये मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। सूत्र-परिचय. प्रतिक्रमणसे सामान्य-शुद्धि होती है और कायोत्सर्गसे विशेष-शुद्धि होती है, अत एव 'मिच्छा मि दुक्कडं' रूप प्रतिक्रमण करनेके पश्चात् कायोत्सर्ग किया जाता है। इस कायोत्सर्गमें चार क्रियाएँ की जाती हैं । पहली क्रिया किये हुए अतिचारकी विशेष-आलोचना और निन्दा करनेके लिये होती है। दूसरी क्रिया तदर्थ शास्त्रोंद्वारा कथित प्रायश्चित्त ग्रहण करनेके लिये होती है। ईरियावहिय अतिचारके लिये २५ उच्छ्वासका कायोत्सर्ग करनेसे प्रायश्चित्त होता है । तीसरी क्रिया चित्तकी विशेष-शुद्धि करनेके लिये होती है और चौथी क्रिया मानसके अन्तर्गत गहरे छिपे हुए शल्योंको दूर करनेके लिये होती है । शल्यके तीन भेद हैं :--मिथ्यात्वशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य । इनमें सत्य वस्तुको मिथ्या समझना और मिथ्या वस्तुको सत्य समझना ये मिथ्यात्व कहलाता है। कपट करना, दम्भ करना ये माया कहलाती है और धर्म करने में फल-प्राप्ति स्वरूप सांसारिक सुख-भोगकी इच्छा करना, ये निदान कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001521
Book TitlePanchpratikramansutra tatha Navsmaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Sahitya Vikas Mandal Vileparle Mumbai
PublisherJain Sahitya Vikas Mandal
Publication Year
Total Pages642
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Worship, religion, & Paryushan
File Size23 MB
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