SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 193 में हियय (हृदय) के साथ हियय उडय हुआ है । 'पिण्डनियुक्ति में मसुडग रूष मिलता है । इसके अतिरिक्त 'नायाधम्मकहा' के पंद्रहवें अध्ययन में भिच्छुड शब्द 'भिखारी' अर्थ में प्रयुक्त है । इस में भिक्षा+-उड ऐसे अवयव हैं और इनसे 'भिक्षा-पिण्ड पर निर्वाह करनेवाला' ऐसा अर्थ प्रतीत होता है। भिच्छुड के स्थान पर भिखंड और भिक्खोंड भी मिलते हैं । संस्कृत में उण्डुक 'शरीर का एक अवयव' और उण्डेरक 'पिष्टपिण्ड' के प्रयोग मिलने हैं। __ अर्वाचीन भाषाओं में मराठी उडा लोई" और उडी 'भात का पिण्ड', गुजराती ऊंडल ‘गुल्म-रोग' तथा सिंहली उण्डिय 'गेंद' में एवं हिन्दी मसूडा सं. मांसोण्डक, प्रा. मंडय में उंड शब्द सुर क्षत है । टनर के अनुसार उड मूल मं द्राविड़ी शब्द है । तमिळ में उण्टे, मलायालम में उण्डो, और कन्नड में उण्डे ये शब्द 'गेद' या 'गोल पिण्ड' के अर्थ में प्रचलित हैं. इन सब में पिठंडी का (चावल के आटे की लोई' यह अर्थ समर्थित होता है । २. उत्ततिपय 'प्रश्नव्याकरण सूत्र' में तीसरे अधर्मद्वार में चौरिका के फलवण'न में वयस्थान की ओर जाते समय चौगे की भयभीत दशा चित्रित करते वहा गया है : मरण -भ उप्रपण-सेद-आयन-णेहुत्तप्पिय-किलिन्न गत्ता । 'जिन के गात्र मरण-भय से उत्पन्न स्वेद के सहजात स्नेह से लिप्त और भीगे यहाँ पर उत्तप्पिय शब्द 'स्नेह-लिप्त,' 'चिकना' इस अर्थ में आया है । "विपाकश्रुत' में भी इसका प्रयोग हुआ है। ज्ञातार्धम-कथा' में, 'कल्पसूत्र में, 'गाथा सप्तशती' में 'चुपडा हुआ', 'लिप्त' इस अर्थ में, 'ओधनियुक्ति-भाष्य' में 'स्निग्ध इस अर्थ में तथा 'सेतुबन्ध' आदि में 'घो' इस अर्थ में तुप्प शब्द प्रयुक्त है । हेमचन्द्राचार्य ने 'देशीनाममाला' में तुप्प के 'म्रक्षित' 'स्निग्ध' और 'कुतुप अर्थ दिए हैं । 'अभिधानगन्द्रकोष' में तुप्पग्ग जिसका अग्रभाग म्रक्षित है । और तुप्पोट्ठ 'जिसका ओष्ठ म्रक्षित है' दिए हैं । अपभ्रंश साहित्य में तुप्प के कई प्रयोग मिलते हैं । तुम्प से नामधातु उत्तुप्प बना और इसके कर्मणि भूतकदंत उत्तप्पिय का अर्थ है 'स्निग्ध पदार्थ से लिप्त' । ऐसे उद् लगाकर नाम से क्रियापद अनाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001462
Book TitleStudies in Desya Prakrit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorH C Bhayani
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1988
Total Pages316
LanguageEnglish, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_English, Dictionary, & literature
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy