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________________ 'सब नित्य है' इस पक्षमें क्रमसे अगर युगपत् कभी घट ना सके अर्थक्रिया, मिथ्या बने दुनिया तभी; ‘सब क्षणिक' माना जाय तब भी क्रमिक वा युगपत् कभी घट ना सके अर्थक्रिया, तब जगत झूठा हदै सभी ।। ४ ।। यदा तु नित्यानित्यत्व - रूपता वस्तुनो भवेत् । यथात्थ भगवन्नैव, तदा दोषोऽस्ति कश्चन ॥५॥ 'सब है कथंचित् नित्य और अनित्य' शाश्वत सत्य यह, जैसा बताया आपने जब समझ लें तीर्थिक सभी; स्याद्वाद-उद्घोषक ! व शोषक - दोषकर्दमके विभो ! उपरोक्त में से एक भी नहि दोष टिक सकता तभी ।। ५ ।। गुडो हि कफहेतुः स्यान्नागरं पित्तकारणम् । द्वयात्मनि न दोषोऽस्ति, गुडनागरभेषजे ॥६॥ गुडसे-अकेले कफ बढे अरु पित्त केवल सूंठ से औषध बने कफ-पित्त-शामक योगसे गुड-सूंठके | बस ठीक ऐसी तरह केवल नित्य या क्षण-पक्षमें है दोष; किन्तु न दोष है भगवन् ! कथंचित् पक्षमें ।। ६ ।। द्वयं विरुद्वं नैकत्राऽसत् प्रमाणप्रसिद्धितः । विरुद्धवर्णयोगो हि, दृष्टो मेचकवस्तुषु ॥७॥ 'दो-दो-विरोधी-धर्म कैसे रह सके इक चीजमें ?' ऐसी कुशंका मत करो !, यह तो प्रमाण-प्रसिद्ध है। देखो कि बहुविध-रंगवाले-एक एव-पदार्थ में, कितने-विरोधी-वर्ण है!, क्या बोध यह अयथार्थ है ? ||७|| २६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001453
Book TitleVitragstav
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShilchandrasuri
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1996
Total Pages100
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Worship
File Size5 MB
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