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________________ ३७ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १२) निवृत्ति होनेवाली है तो 'प्रत्यये च' १/३/२ सूत्र में 'सौ नवेतौ' १/२/३९ सूत्र में से चली आती 'वा' की अनुवृत्ति को आगे के सूत्र में ले जाने के लिए 'चकार' और 'शषसे शषसं वा' १/३/ ६ सूत्र में 'नवा' के अधिकार द्वारा चाली आती 'वा' की अनुवृत्ति को निवृत्त करने के लिए पुनः 'वा' का ग्रहण क्यों किया? इससे ज्ञापित होता है कि यह न्याय अनित्य है। और 'विशेषविधि' अर्थात् 'अतिदिष्टविधि' प्रकृत/प्रवर्तमान अधिकार का बाध नहीं करता है, ऐसा न्याय होने से 'धातोरिवर्णो' २/१/५० सूत्र से शुरु होनेवाला 'धातोः' पद का अधिकार 'भ्रूश्नो:' २/१/५३ आदि तीन सूत्र में विशेषविधि' (अतिदेश विधि) होने से नहीं कहा है, तथापि इस न्याय के बल से अत्रुटित होने से 'योऽनेकस्वरस्य' २/१/५६ सूत्र में 'धातोः' पद के अधिकार का प्रादुर्भाव होता है किन्तु यह कार्य भी इस न्याय के द्वारा सिद्ध होता है, अतः वही न्याय 'विशेषातिदिष्टो विधिः प्रकृताधिकारं न बाधते' इस न्याय के अन्तर्गत ही मानना । मण्डूकप्लुतिन्याय भी इसी न्याय का ही भेद/प्रकार है । जैसे मेंढक उछलता-उछलता, बीच की कुछ भूमि को छोड़कर आगे जाता है, वैसे पूर्व के सूत्र का अधिकार बीच के कुछेक सूत्र को छोड़कर आगे जाता है, तब उसे मण्डूकप्लुतिन्याय कहा जाता है । जैसे 'अञ्वर्गात् स्वरे वोऽसन्' १/२/४० सूत्र में जो 'असत्' का अधिकार है, वह बीच में अइउवर्णस्यान्तेऽनुनासिकोऽनीनादेः' १/ २/४१ सूत्र को छोडकर तृतीयस्य पञ्चमे' १/३/१ और प्रत्यये च' १/३/२ सूत्र में गया है। अत एव 'ककुम्मण्डलम्, अम्मयम्' इत्यादि प्रयोग में समासान्तर्वर्तिनी विभक्ति के आधार पर 'नाम सिदय्व्यञ्जने' १/१/२१ से पद संज्ञा होगी और पद संज्ञा होने के बाद भी 'म्' असत् होने से पद के अन्त में आया हुआ 'म्' नहीं मिलेगा, अत: उसी 'म्' का 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' १/३/१४ सूत्र से 'अनुस्वार' और 'अनुनासिक' नहीं होगा । यहाँ भी अधिकार की प्रवृत्ति और निवृत्ति अपेक्षा अनुसार ही सिद्ध होती है किन्तु इसके लिए किसी ज्ञापक की आवश्यकता नहीं है। अधिकार दो प्रकार के हैं-१. सूत्राधिकार २. शब्दाधिकार । १. जिस सूत्र द्वारा, व्याकरण के, उसी सूत्र के बाद के कोई निश्चित सूत्र की, मर्यादा करके कोई विशेष बात कही जाती है, उसी सूत्र को अधिकार सूत्र कहा जाता है । इसे सूत्राधिकार भी कहा जाता है । उदा. (१) 'घुटि' १/ ४/६८ सूत्र में कहा है कि इस सूत्र के बाद के सूत्र से लेकर, इस पाद की समाप्ति तक, जहाँ भी कोई विशेष निमित्त का ग्रहण न किया हो वहाँ 'घुटि' अर्थात् 'घुट्' प्रत्यय को निमित्त के रूप में ग्रहण करना । (२) 'आ तुमोऽत्यादिः कृत्' ५/१/१, इस सूत्र से लेकर, तुम् प्रत्यय, जिस का विधान इसी अध्याय के चतुर्थपाद के अन्त में किया गया है, वहाँ तक के, त्यादि (तिवादि) प्रत्ययों को छोडकर, सभी प्रत्ययों को ‘कृत्' संज्ञा होती है। २. शब्दाधिकार-: किसी भी सूत्र में संक्षिप्तता मुख्य चीज है और उसके साथ असंदिग्धता भी इतनी ही महत्त्व की बात है, अतः सूत्र की संदिग्धता दूर करने के लिए प्रकरणानुसार अन्य पदों की आवश्यकता/जरूरत रहती है। ये पद, पूर्व के सूत्र में से अनुवृत्ति के स्वरूप में, पिछले/बाद के सूत्र में आते हैं, अर्थात् एक ही प्रकरण में आये हुए सूत्रों में बहुत से शब्द सामान्य होते हैं, अतः उसी शब्दों को प्रकरण के शुरू में एक ही स्थान पर कहे जाते हैं और बाद में, पिछले सूत्रों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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