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________________ १४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) को ही स्थानी माना जाय, किन्तु व्यञ्जन को स्थानी न माना जाय । इस प्रकार हूस्वादि विधायक सूत्र में ही इस न्याय की आवश्यकता है, यह बात, इस न्याय की वृत्ति से भी स्पष्ट होती है । अतः 'प्रतक्ष्य' में 'त' का आगम और 'तितउच्छत्रम्' में द्वित्व के विकल्प हस्वादि विधान विषयक नहीं है किन्तु हूस्वादि संज्ञा निर्दिष्टकार्यविषयक है, अतः इन प्रयोगो में इस न्याय की आवश्यकता की चर्चा करना व्यर्थ है। कुछेक के मतानुसार/अभिप्रायानुसार इस न्याय की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि हुस्वादि संज्ञाविधायक व्याकरण के सूत्रानुसार इस्व, दीर्घ, प्लुत संज्ञा स्वर की ही होती है, किन्तु व्यञ्जन की नहीं होती, अत एव सिद्धहेम के हुस्वादि संज्ञा विधायक 'एकद्वित्रिमात्रा हुस्वदीर्घप्लुताः' १/१/५ सूत्र में व्यञ्जनसमूहों को स्वरसमूह से अलग करने के लिए, पूर्व के 'औदन्ताः स्वराः' १/ १/४ सूत्र से 'औदन्ताः' शब्द/पद की अनुवृत्ति की गई है। तथा पाणिनीय परम्परा में 'ऊकालोऽच इस्वदीर्घप्लुताः' [ पा.सू. १/२/२७ ] सूत्र भी इसी बात का समर्थन करता है। अतः इस न्याय को हस्वादि संज्ञा विषयक भी कहा जा सकता है । यद्यपि पाणिनीय परम्परा में 'नाऽज्झलौ' [पा.सू. .......] सूत्र के अनुसार स्वर को व्यञ्जन के साथ 'सवर्ण' संज्ञा नहीं होती है । इसी बात की सिद्धि इस न्याय से होती है । यदि दोनों की परस्पर सवर्ण' संज्ञा हो जाती तो, स्वर के स्थान में व्यञ्जन और व्यञ्जन के स्थान में स्वर होने की आपत्ति आ जाती, इस आपत्ति को, इस न्याय से दूर की गई है। किन्तु महाभाष्य में 'नाऽज्झलौ' [पा. सू. .......] सूत्र का खंडन किया गया है, इस प्रकार इस न्याय का भी खंडन या व्यर्थता प्रतिपादित की जा सकती है, किन्तु इस न्याय को केवल ह्रस्वादि संज्ञा के विषय को स्पष्ट करनेवाला और 'एकद्वित्रिमात्रा'- १/१/५ सूत्र का अनुवाद ही मानना चाहिए। तथा इस न्याय का कोई विशिष्ट ज्ञापक नहीं है, अतः इसे वाचनिकी परिभाषा या लोकसिद्ध परिभाषा मानना चाहिए । ___ भोज के अलावा अन्य किसी भी व्याकरण में इसका न्याय (परिभाषा) के स्वरूप में स्वीकार नहीं किया गया है। पाणिनीय परम्परा में इसी अर्थ में 'अचश्च' (पा.सू.१/२/२८) परिभाषा सूत्र है। ॥ ५ ॥ आद्यन्तवदेकस्मिन् ॥ जहाँ एक ही वर्ण या शब्द हो, वहाँ वह आदि भी माना जाता है और अन्त भी। जहाँ एक ही वर्ण या शब्द/नाम हो, और कार्य 'आदि' सम्बन्धी या अन्त सम्बन्धी करने का विधान किया है, वहाँ वही वर्ण या शब्द को आदि और अन्त मानकर कार्य करना चाहिए । जहाँ कार्य की अप्राप्ति थी वहाँ कार्य की प्राप्ति के लिए यह न्याय है। [इस के बाद का न्याय भी जहाँ १. स्थानिविशेषानुक्त्या स्वरवद् व्यञ्जनस्यापि हस्वाद्यादेशप्रसङ्गे प्रतिषेधार्थोऽयं न्यायः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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